Wednesday, June 1, 2011

सिगमंड फ़्रायड के नाम अल्बर्ट आइंस्टीन का राजनैतिक पत्र

( यह व्यक्तिगत पत्र आइन्स्टीन द्वारा सन १९३१ या १९३२ की शुरुआत में सिगमंड फ़्रायड को लिखा गया था। जो कि “Mein Wettbild, Amsterdam: Quarido Verlag” में सन १९३४ में प्रकाशित हुआ था।)





प्रिय प्रोफ़ेसर फ़्रायड,

        आपमें सत्य को जानने समझने की उत्कंठा, जिस तरह अन्य उत्कंठाऒं पर विजय प्राप्त कर चुकी है, प्रशंसनीय है। आपने अत्यन्त प्रभावी सुबोधगम्यता से दर्शाया है, कि मानव चित्त में प्रेम ऐइर जीवटता के साथ युद्धप्रिय और विनाशकारी मूलप्रवृत्तियाँ कितने अविलग ढंग से बंधी हैं। लेकिन, ठीक उसी क्षण वाद विवाद के अकाट्य तर्कों में मानवता की युद्ध से बाह्य और आन्तरिक मुक्ति के महान लक्ष्य हेतु ह्गहरी अभिलाषा भी प्रकाशमान होती है। इस महान लक्ष्य की घोषणा जीसस क्राइट्स से लेकर गोथे और कान्ट तक, सभी नैतिक और आध्यात्मिक नेताओं के द्वारा किन्हीं अपवादों के बिना तथा देश काल से परे होकर की गयी थी। क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इन लोगों को वैश्विक स्तर पर नेताओं के रूप में स्वीकार किया गया, यद्यपि यह भी कि मानवीय मुद्दों की विषय वस्तु को साँचे में ढालने के उनके प्रयासों में (जनता की) सहभागिता तो हुयी, मगर अत्यंत छोटी सफलता के साथ?
         मैं स्वीकार करता हूँ कि वे महान लोग, जिनकी उपलब्धियाँ कैसे भी किसी क्षेत्र तक प्रतिबन्धित कर दी जातीं हैं, वही उपलब्धियाँ उन्हें अपने आसपास के लोगों से उन्हें ऊँचा उठा देती हैं, समान आदर्श के अपरिहार्य विस्तार का सहभागी भी बनाती हैं। परन्तु, उनका प्रभाव राजनीतिक घटनाओं की विषयवस्तु पर कम है। यह करीब करीब ऐसे प्रतीत होता है, जैसे उसी क्षेत्र को हिंसा और राजनीतिक सत्ताधारियों की गैरज़िम्मेदारियों पर अपरिहार्य रूप से छोड़ दिया गया हो, जिस कार्यक्षेत्र पर राष्ट्रों की तकदीर निर्भर करती है।
          राजनीतिक नेताओं सरकारों की वर्तमान स्थिति कुछ बल और कुछ चर्चित चुनावों के कारण है। वे अपने अपने राष्ट्रों में नैतिक और बौद्धिक रूप से, जनता के सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि नहीं ठहराये जा सकते। बुद्धिजीवी संभ्रांतों का इस वक्त देशों के इतिहास पर कोई सीधा प्रभाव नहीं है: उनकी सम्बद्धता में कमी उन्हें समकालीन समस्याओं के निराकरण में सीधे प्रतिभागिता करने से रोकती है। क्या आप नहीं सोचते? कि जिनके क्रियाकलाप और पूर्ववर्ती उपलब्धियाँ; उनकी योग्यता और लक्ष्य की पवित्रता की गारन्टी का निर्माण करतीं हैं, उन लोगों के मुक्त संगठन के द्वारा इस दिशा में परिवर्तन किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति के इस गठबंधन के सदस्यों को आवश्यक रूप से शक्ति और विचारों आदान-प्रदान, पत्रकारों के समक्ष अपना दृष्टिकॊंण प्रेषित करके आपस में संपर्क में रहना होगा। किसी खास अवसर पर ज़िम्मेदारी सदैव हस्ताक्षरकर्त्ताऒं पर रही है-और यह राजनीतिक प्रश्नों के निराकरण हेतु सामान्य से काफ़ी अधिक और सलाम लरने योग्य नैतिक प्रभाव छोड़ती है। निश्चित रूप से ऐसे संगठन, उन सभी बुराइयों जो कि अक्सर ज्ञानवान समाजों को विखन्डन के रास्ते पर ले जातीं हैं, और खतरों जो कि अविलग रूप से मानव मनोवृत्तियों की कमियों से जुड़े होते हैं, के लिये शिकारी की तरह होंगे। इस तरह के प्रयासों  को मैं अनिवार्य कर्तब्य से कमतर नहीं देखता हूँ।
      यदि ऐसी समझ वाले वैश्विक  संगठन का निर्माण हो पाता है, जिसका कि मैंने पूर्व में वर्णन किया; यह युद्ध के विरुद्ध संघर्ष हेतु आध्यात्मिक संस्थाओं को संगठित कर्ने का सत प्रयत्न भी कर सकता है। य उन तमाम लोगों के लिये अनुग्रह होगा, जिनके उत्कृष्ट ध्येय, निराशाजनक निष्कासन के कारण विकलाँग हो चुके हैं। अंततः, मुझे विश्वास है, यदि अपनी अपनी दिशाओं के अत्यन्त आदरणीय लोगों का संगठन बन पाया, जैसे कि मैंने वर्णित किया, तो राष्ट्र संघ के उन तमाम देशों को जो कि वास्तव में एक महान लक्ष्य की दिशा में कार्यरत हैं और जिस ध्येय के लिये संघ का अस्तित्व है, को महत्वपूर्ण नैतिक (आधार) सहयोग प्रदान करने हेतु अत्यन्त उपयुक्त सिद्ध हो सकता है।
      मैंने यह प्रस्ताव विश्व के किसी अन्य के अलावा आपके समक्ष इसलिये रखा, क्योंकि आप अन्य सभी लोगों में सबसे कम, अपनी इच्छाओं के द्वारा ठगे जाते हैं, क्योंकि आपके आलोचनात्मक निर्णय, ज़िम्मेदारी के सबसे गहरे एहसास पर आधारित होते हैं।

                                                                      आपका
 
                                                                 (अल्बर्ट आइन्स्टीन)


अनुवाद: मेहेर वान