Thursday, December 15, 2011

आसक्ति और अनासक्ति के बीच बने राग का सूफ़ी: जगजीत सिंह


---मेहेर वान
          
 (हालांकि समय-यात्री आम तौर पर विज्ञान की दुनियाँ के सफ़र पर निकलता है, मगर उसे संगीत भी बहुत पसंद है| समय यात्री का एक हमसफ़र, एक दिन उससे अलविदा कह गया| उसी हमसफ़र को याद करते हुए- )
       




जगजीत सिंह की आवाज़ कब जिंदगी की हमसफ़र बन गयी, पता ही नहीं चला। कभी इसी आवाज़ को दादा के रेडियो और पापा के टेप-रिकॉर्डर पर सुना था। जब स्कूल में था तो जगजीत की ग़ज़लों के अर्थ अनबूझे से लगते थे, जिन्हें महसूस करने के लिये शायद न तो हमारे लिये उपयुक्त परिस्थितियाँ थी न हमारा संघर्ष उन भावनाओं और एहसासों से मेल खाता था। धीरे-धीरे समय के साथ अनुभव और एहसास बदलते गये, तो जगजीत सिंह की ग़ज़लें क़रीब आती गयीं। इसका कारण सिर्फ़ ग़ज़लों के बेहतरीन शब्द ही नहीं थे, जो मध्यवर्गीय संघर्ष और भावनाओं के ज्वार-भाटों को किनारा देते हुये प्रतीत होते थे। उन शब्दों को सुरों से सजाने वाली आवाज़ भी उतनी ही असरदार और अपनापे का एहसास कराने वाली थी कि जगजीत के चाहने वालों में उम्र का फ़र्क मिट जाता है। शायद यही कारण है कि, हर कोई अपने-अपने स्तर पर जगजीत की ग़ज़लों से जुड़ने का कारण तलाश लेता है। जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायिकी को उस समय एक नयी दिशा दी, जब ग़ज़लों के चाहने वाले लगातार कम हो रहे थे। ६० के दशक में ग़ज़ल गायिकी में शास्त्रीय संगीत का प्रभाव ज़्यादा था। उन्होंने ग़ज़ल गायिकी को परंपरागत संगीत और गायन से अलग करते हुये, उसमें पार्श्व संगीत का उपयुक्त समायोजन करते हुये नयी तरह से ग़ज़ल गाना शुरु किया। ग़ज़ल को सुगम और सुग्राह्य बनाने के लिये उन्होंने अपेक्षाकृत सरल शब्दों वाली रचनायें भी गायन के लिये चुनीं, उनका यह प्रयोग सफ़ल रहा और इससे आम लोगों में ग़ज़ल की पहुँच लगातार बढ़ती गयी।
             जगजीत सिंह का संगीत में बचपन से ही रुझान था और वे अपने पैतृक गाँव श्रीगंगा-नगर में पं०छगनलाल शर्मा से संगीत की शिक्षा लेना शुरु कर चुके थे। इसके बाद, महान गायक तानसेन के सैनिया घराना के गायक उस्ताद जमाल खान के यहाँ भी उन्होंने छः साल तक ठुमरी, खयाल ध्रुपद और भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की। संगीत की बारीकियाँ उन्होंने यहीं सीखीं। इसके साथ ही जगजीत सिंह ने इतिहास में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से परास्नातक की पढ़ाई भी की। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सूरजभान उनकी गायन प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ही जगजीत सिंह को गायन में अपना कैरियर बनाने कि लिये प्रेरित करते हुये बम्बई जाने की सलाह दी थी। जगजीत सिंह, अपने परिवार में जीत सिंह के नाम से जाने जाते थे, और गायिकी की शुरुआत में वे जगमोहन के नाम से गाते थे, बाद में वे अपना नाम बदल कर जगजीत सिंह के नाम से गाने लगे। बम्बई में फ़िल्मों में पार्श्व गायन्के लिये आये थे मगर गायन के क्षेत्र में उनकी शुरुआत विज्ञापनों में गाये जाने वाले “जिंगल्स” से हुयी। सुरेश अमीन की गुज़राती फ़िल्म “धरती ना छोरू” में उन्हें सबसे पहले ब्रेक मिला। विज्ञापनों में जिंगल्स गाते हुये उनकी भेंट चित्रा सिंह से हुयी, चित्रा सिंह भी गायन से जुड़ी हुयीं थीं। बाद में इस जोड़ी ने कई बेहतरीन दिल को छू लेने वाली सुरीली धुनों से सजी गज़लों से भारतीय संगीत से नवाज़ा।
            १९७० का दौर नूर जहाँ, मल्लिका पुखराज, बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, मेंहदी हसन, तलत मेहमूद, और बेग़म अख़्तर की ग़ज़ल गायिकी का दौर था। सन १९७६ में जगजीत सिंह ने अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत पर आधारित ग़ज़ल-संग्रह “द अन्फ़ोरगेटबल्स” के नाम से निकाला, जिसकी परंपरागत आलोचकों ने ग़ज़ल गायन की संरचना को बदलने के कारण काफ़ी निन्दा भी की। इसके बावजूद यह ग़ज़ल संग्रह अपनी धुनों के सुरीलेपन और जगजीत की ताज़ी मखमली आवाज के कारण जनता में काफ़ी पसन्द किया गया। इस संग्रह ने ग़ैर-फ़िल्मी संगीत के कैसेटों की बिक्री के कीर्तिमान स्थापित किये। १९८० के ही दशक में उनकी दो फ़िल्में आयीं- “अर्थ” और “साथ-साथ” जिसके गीतों से सुनने वालॊं को आज भी उतना ही प्यार है जितना कि उस दौर में था। इसके बाद जगजीत सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद उनके लगातार ग़ज़ल संग्रह आते रहे जिनमें उनका ग़ज़ल-चयन, धुन-निर्माण, और गायन शैली का संगम इतना बेमिसाल रहा कि संगीत के चाहने वालों ने उन्हें सर आँखों पर लिया। उनके प्रमुख संग्रहों में सर्च इनसाइट, मिराज, विज़न, कहकशाँ, लव इज़ ब्लाइंड, चिराग, मरासिम, फ़ेस टू फ़ेस, आइना, वादा, सहर , लम्हे और कोई बात चले आदि बेहद पसन्द किये गये। इनमें से १९९० के के पहले के लगभग सभी ग़ज़ल संग्रह उन्होंने चित्रा जी के साथ गाये। चित्रा जी के साथ उनका अंतिम संग्रह आया-  “समवन सम्व्हेयर” (कोई कहीं) और इसके बाद अपने इकलौते बेटे की असमय मौत के कारण चित्रा जी ने गायन से संन्यास ले लिया। इस के बाद लता मंगेशकर जी के साथ  उनका एक अल्बम आया “सजदा”, यह अल्बम बहुत ही सुरीली धुनों पर आधारित है और बहुत चर्चित भी हुआ। यहाँ उनके एक और अल्बम को याद करना ज़रूरी है। १९९० की शुरुआत में “बियॉन्ड टाइम” अल्बम आया जिसमें उन्होंने चित्रा जी के साथ गाया। यह अल्बम मल्टीट्रेक रिकॉर्डिंग तकनीक पर रिकॉर्ड हुआ था जो कि उस समय शायद भारतीय ग़ैर-फ़िल्मी गायकों की पहुँच से काफ़ी दूर था। इसमें प्रचलित सांगीतिक उपकरणॊं के सुरों के इतर भी कुछ आवाज़ें डाली गयीं थीं। जगजीत सिंह ने मिर्ज़ा ग़ालिब, फ़िराक़ गोरखपुरी, क़तील शिफ़ाई, गुलज़ार और निदा फ़ाज़ली तक के समय के शायरों के कलामों को अपनी आवाज़ दी। उनकी गायी, बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल “लगता नहीं है दिल मेरा..” काफ़ी चर्चित हुयी थी। जगजीत सिंह के पंजाबी लोक संगीत में योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता।
               जगजीत सिंह की गायन-शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने ग़ज़ल को आम लोगों के स्तर तक उतारा, लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने ग़ज़ल की गम्भीरता को वैसे ही बनाये रखा जैसे कि वह पहले थी। उन्होंने ग़ज़ल को सरल और सुगम और अधिक सुरीला तो बनाया ताकि जनता और बेहतरी से ग़ज़ल को समझ और महसूस कर सके, लेकिन ग़ज़ल गायिकी का सरलीकरण नहीं होने दिया। शायद यही प्रमुख कारण है जिसके लिये जगजीत सिंह लम्बे समय तक याद किये जायेंगे। ज़िंदगी की कठिन पहेली को समझने में आसक्ति और अनासक्ति के बीच बना जो सूफ़ियाना अंदाज़ होता है वह इस आवाज़ में न जाने कितनी रंगतों के साथ मुखर हो रहा था। “न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन..” जैसे शब्दों को हिन्दी फ़िल्मों के गानों में न जाने कितनी बार दोहराया गया है लेकिन जगजीत सिंह  की आवाज़ में ये गीत सुनने पर न जाने क्यों दिल की अन्तिम गहराइयों तक जाता है, दरअसल यह उनकी आवाज़ और उनके एहसास ही थी जो कि शब्दों को उनके बृहद अर्थ देते थे। यह बाद भी विचारणीय है कि तलत महमूद, किशोर कुमार, महेंद्र कपूर, हेमंत कुमार जैसे प्रभावशाली गायकों के होते हुये ७० और ८० के दशक में जगजीत का उदय कैसे हुआ? ये वह दौर था जब फ़िल्मी संगीत तेज़ी से बीट पर आधारित पश्चिमी संगीत से प्रभावित हो रहा था। गानों में शोर और कोलाहल से युक्त बीट वाला संगीत दिया जा रहा था। जगजीत सिंह की धुनों का सुरीलापन और माधुर्य तथा आवाज़ का मखमली अंदाज़ संगीत सुनने वालों को ऐसे समय में बेहतर विकल्प प्रदान करता था। जगजीत सिंह की आवाज़ शास्त्रीय और अर्द्ध-शास्त्रीय संगीत की परम्पराऒं से बंधी तो हुयी थी मगर अपनी मौलिकता भी लिये हुयी थी। उनकी सफ़लता का कारण शायद यही है कि उन्होंने शास्त्रीय और लोकप्रिय संगीत को बहुत ही करीने से साथ साधकर पेश किया। जगजीत सिंह ने ग़ज़लॊं का चयन भी बहुत बेहतर ढ़ंग के साथ किया। उनकी गायी ग़ज़लें हमेशा साधारण जीवन के संघर्षों के साथ-साथ चलती रहीं। शहरीकरण के दौर में गायी गयी ग़ज़ल ”ये शहर भी कितना अजीब है, न कोई दोस्त है न कोई रक़ीब है..” को याद कीजिये, ये वही समय था जब लोगों ने शहरों की तरफ़ भागना शुरु किया था। रोज़गार और नौकरी की तलाश में युवा शहरों की तरफ़ भाग रहे थे। ये युवा अपने घर-बार, गाँव, कस्बे छोड़कर शहरआकर आर्थिक रूप से अशक्त तो हो रहे थे लेकिन छूटते साँस्कृतिक संसार और बिखरते रिश्तों के अकेलेपन में ये ग़ज़लें उनकी तन्हाई और अकेलेपन में साथी बन रहीं थीं। “तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो…” जैसी ग़ज़लॊं को अपने निराले अंदाज़ और एहसासॊं के समन्दर से बनी मखमली आवाज़ से सजाकर उन्होंने लोगों के संघर्ष और विजय-पराजय के दुखों-सुखों को किनारा दिया। जगजीत सिंह गायकी के साथ हमेशा प्रयोग करते रहे। टीवी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब में नसीरुद्दीन शाह के बेहतरीन अभिनय और जगजीत की बेमिसाल गायकी से इस टीवी सीरियल में मिर्ज़ा ग़ालिब के चरित्र की जटिलतायें और बेहतर ढ़ंग से सामने आ सकीं। वस्तुतः, यह एक तरह की प्रयोगधर्मिता और नया करने की कोशिश भी थी जो जगजीत को अपने अन्य समकालीनों से अलग करती थी।   

         
         १० अक्टूबर, २०११ को यह महान संगीतज्ञ हमें छोड़कर विदा हो गया, लेकिन ज़िंदगी की घनी धूप में उनकी ग़ज़लें घना साया बनकर हमारे बीच हमेशा ज़िंदा रहेंगी। ये अलग बात है कि उनके जाने के बाद हमें ये आभास हो- “तुम  चले जाओगे तो हम सोचेंगे, हमने क्या खोया हमने क्या पाया…”।



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Friday, December 9, 2011

शून्य से शिखर तक के सफर का यात्री- हर गोविन्द खुराना


                                                                                                                -मेहेर बान
      बचपन में जीव विज्ञान की किताबों में जब कोशिकीय अंगों के बारे में शिक्षक पढ़ाया करते थे, तो तमाम आविष्कारकों की सूची में सिर्फ़ एक ही नाम होता था जो कुछ अपना सा लगता था। परीक्षा में लिखने के लिये, इस नाम को कभी रटने की ज़रूरत नहीं पड़ी। हम तो बस इतने में ही खुश रहा करते थे कि विज्ञान के अटपटे नामों के अथाह समन्दर में से एक नाम अपना सा है, और वो नाम एक बहुत बड़े वैज्ञानिक का है। उस समय अध्यापक ने बताया था कि गिने-चुने भारतीय वैज्ञानिकों में से एक हर गोविन्द खुराना भी हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ है। तब हमें यह अन्दाज़ा भी नहीं था कि नोबेल पुरस्कार कितना बड़ा होता है, हमारे लिये तो यही बहुत आश्चर्य कई बात थी कि जो कोशिका हमें दिखाई तक नहीं देती, उसके अंगों के काम करने की प्रक्रिया के बारे में इतना कुछ ये वैज्ञानिक कैसे जान लेते थे। बहुत बाद में विज्ञान की पढ़ाई करने पर तमाम संशयों के धुन्ध में कुछ सत्य दिखाई देने लगे, तो हर गोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिकों का महत्व बेहतर समझ आने लगा। प्रो.हर गोविन्द खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवाँशिक सूचनाऒं के प्रोटीन में पहुँचने की प्रक्रिया को पहली बार समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिये जीवित कोशिकाओं में अन्य प्रक्रियायें सुचारु रुप से सम्पन्न होती हैं। इस कार्य के लिये उन्हें शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। विज्ञान के क्षेत्र में वे प्रो.सी.वी.रमन और प्रो.चन्द्रशेखर के बाद भारतीय मूल के तीसरे वैज्ञानिक थे, जिन्हें अपने आविष्कारों के लिये नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
       प्रो. हर गोविंद खुराना का सफ़र अविभाजित भारत के पंजाब (जो कि अब पाकिस्तान में है) के एक छोटे से गाँव रायपुर से शुरु हुआ और दुनियाँ के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक संस्थानों में से एक मेसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेकनोलॉजी, अमेरिका तक पहुँचा। हर गोविन्द खुराना की वास्तविक जन्मतिथि मालूम नहीं है, स्कूल में नाम दर्ज़ कराते समय 9 जनवरी 1922 की तिथि उनके जन्मदिन के रुप में लिख दी गयी थी। वो चार भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे थे। बताते हैं कि उस समय इस गॉव में सिर्फ़ डॉ.हर गोविन्द का परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज़ से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, उन्होनें पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी. और एम.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की। बाद में अपने संस्मरणों में, वे अपने प्रारम्भिक शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को अक्सर अपने शैक्षिक जीवन के प्रकाश स्त्रोतों की तरह याद करते। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढाई करने के लिये सरकारी वज़ीफ़ा प्राप्त हो गया। डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के लिये वे इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय चले गये। वहाँ उन्होंने  प्रसिद्ध वैज्ञानिक रोज़र एस.बीर के निर्देशन में शोध कार्य शुरु किया। 1948-1949 में पोस्ट-डॉक्टोरल के लिये वे स्विट्ज़रलैंड आ गये जहाँ उन्होंने प्रोफ़ेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया, यही वो जगह थी जहाँ उन्होंने विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला, जिसने उन्हें पूरा जीवन बिना थके हुये लगातार विज्ञान की सेवा की। 
         सन 1949 में कुछ समय के लिये वे भारत आये और 1950 में वे फिर सरकारी वज़ीफ़ा मिलने पर वापस इंग्लैंड चले गये, जहाँ उन्होंने कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय में प्रो. ए.आर. टॉड के साथ काम किया, यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लियिक अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुयी। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ़ ब्रिटिश कोलम्बिया, कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आये। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड के समय की दोस्त ’एस्थर सिब्लर’ से शादी की। तत्पश्चात 1960 में वे आगे के शोध कार्य के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका चले आये। यहीं इंस्टीच्यूट ऑफ़ एन्जाइम्स रिसर्च में किये गये शोध कार्य के लिये उन्हें बाद में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली और 1968 में उन्हें शरीर क्रिया विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। प्रॊ. खुराना का शोधकार्य कभी बाधित नहीं हुआ, वे 1970 में मेसाच्युसेट्स इंस्टीच्य़ूट ऑफ़ टेकनोलॉजी में सम्मानित ’अल्फ़्रेड स्लोन प्रोफ़ेसर ऑफ़ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी’ नियुक्त किये गये। यहाँ पर शोध कार्य करते हुये प्रो. खुराना ने आनुवाँशिकी से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गये। वर्तमान में वे एम.आई.टी में एमेरिटस प्रोफ़ेसर थे। 10 नवंबर 2011 को मेसाच्युसेट्स इंन्स्टीच्यूट ऑफ़ टेकनोलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रो. हर गोविन्द खुराना 9 नवंबर 2011, को हमें हमेशा के लिये छोड़कर चले गये। वे 89 वर्ष के थे और अंतिम समय तक छात्रों शोधकर्त्ताओं से लगातार मिलते रहे और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया से लगातार जुड़े रहे। 
         प्रो. हर गोविन्द खुराना का सफ़र शून्य से शिखर तक का सफ़र कहा जा सकता है। ग़रीब परिवार में जन्मे हर गोविन्द ने अपने जिज्ञासु दिमाग की भूख मिटाने के लिये आजीवन संघर्ष किया और इसी संघर्ष से जीवन और जीवन के सूक्षतम नींव के पत्थर कोशिका और उसके अंगों और उपअंगों की क्रियाविधि के बारे में वैश्विक वैज्ञानिक परिवार और मानव की समझदारी विकसित हुई। 1953 में वॉटसन और क्रिक ने डी.एन.ए. के दोहरी कुंडली जैसी संरचना के बारे में खोज की थी जिसके लिये वाटसन और क्रिक को भी नोबेल पुरस्कार मिला, लेकिन वे डी.एन.ए. से प्रोटीन की निर्माण प्रक्रिया और अन्य आनुवाँशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स से बनी संरचना अमीनॊ अम्लों का निर्माण करते हैं जो कि  प्रोटीन का एक हिस्सा हैं। रसायनिक अभिक्रिया के ज़रिये प्रो.खुराना ने आर.एन.ए. में आनुवाँशिक कोडों की संरचना को स्पष्ट किया। नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने शोध कार्य सतत जारी रखा। 
       नोबेल मिलने के चार साल बाद उन्हें पूर्णतः कृत्रिम जीन का रसायनिक विधियों द्वारा निर्माण करने में सफ़लता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीनों का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया जिनमें से दृष्टिदॊष से सम्बन्धित जीन रोडोस्पिन का कृत्रिम निर्माण प्रमुख था। इन खोजों का मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। आनुवांशिकी में प्रो.खुराना की खोजें आज भी महत्वपूर्ण हैं, इनका इस्तेमाल मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र में लगातार हो रहा है। प्रो. खुराना एक सफ़ल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे रहते। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को भी 1993  में डी.एन.ए. में फ़ेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिये नोबेल पुरस्कार मिला है। विज्ञान और तकनीक के भविष्य और अनुप्रयोगों के सम्बन्ध में हमेशा गम्भीर रहते थे। उनके छात्र उन्हें एक उत्कृष्ट शिक्षक और हमेशा बेहतर शोध करने के लिये उत्साहवर्धन करने वाले अच्छे इंसान के रुप में याद करते है। समकालीन जनमत सरल व्यक्तित्व वाले महान वैज्ञानिक को श्रद्धाँजलि देते हुये, विज्ञान और तकनीक का आमजन के हित में इस्तेमाल के प्रो.खुराना के सपनों को याद करता है।
        समय के इस मोड़ पर प्रो. हरगोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिक को सिर्फ़ श्रद्धाँजलि देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। इस पड़ाव पर थोड़ा ठहरकर यह भी सोचने की ज़रूरत है कि आज से 66 वर्ष पहले वे 1945 में आगे की पढाई के लिये इंग्लैण्ड गये थे, उस समय भारत में न तो बहुत अच्छे वैज्ञानिक शोध संस्थान थे न ही विभिन्न क्षेत्रों के सर्वोत्कृट वैज्ञानिक। ऐसी परिस्थितिओं में देश से अनगिनत मेधावी देश छोड़कर पढ़ाई करने विदेश गये और देश में संसाधनों के अभाव के कारण पुनः देश नहीं आये। देश की आज़ादी के छः दशकों के लम्बे समय के बाद आज ये विचारणीय प्रश्न है कि क्या आज भी हम पुरानी परिस्थितियाँ बदल पाये हैं? या आज भी हम देश में एक ऐसे संस्थान् की कल्पना मात्र कर रहे हैं जिसमें विश्व स्तर पर प्रभावित करने वाला शोध कार्य हो जिससे नोबेल जैसे पुरस्कार भी अपना गौरव बढ़ा सकें। आज़ादी के बाद, विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में से किसी एक में भी हम नोबेल पुरस्कार पाने में असफ़ल हुये हैं। ऐसे कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारे देश की प्रतिभायें आज भी इन लक्ष्यों को दूर से देख पाने मात्र को मजबूर हैं।
प्रो. हर गोविन्द खुराना को श्रद्धाँजलि देने के साथ इस पर भी वैश्विक स्तर पर विचार होना आवश्यक है कि आज जब दुनियाँ के लगभग सभी देश विज्ञान और तकनीक के हर एक  खोज और परिणाम में सैनिक उपकरण और युद्ध में उपयोग की सम्भावनायें देख रहे हैं, ऐसी परिस्थितियों में अमेरिका में रहते हुये भी जहाँ की अर्थव्यवस्था ही युद्धक उपकरण बनाने के व्यापर से संचालित होती है, प्रो. हर गोविन्द खुराना ने अपनी आनुवाँशिकता और जैविक क्षेत्र की खोजों को सैनिक और रक्षा क्षेत्रों में उपयोग होने से बचाये रखा। वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय के लिये यह एक चुनौती है जिसका सामना उन्हें स्वयं को वैज्ञानिक चुनौतियों से निबटने के साथ-साथ समानान्तर करने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा।
        प्रो. हर गोविन्द खुराना के गुज़र जाने की खबर भारतीय मीडिया में तीन दिन बाद आयी। वह मीडिया जो स्वय़ं को सबसे तेज़ और समय से आगे का मीडिया कहा करता है, इस मीडिया को इस महान वैज्ञानिक के छोड़कर चले जाने की खबर से कॊई वास्ता नहीं दिखा। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि तमाम दोयम दर्ज़े  के मुद्दों की खबरों और बहसों से भारतीय मीडिया को फ़ुरसत नहीं थी।
      सच्चे अर्थों में इस महान वैज्ञानिक को श्रद्धाँजलि देना इसी तरह से संभव होगा जब हम उसके सपनॊं को पूरा करने के लिये स्वयं को तैयार कर पायेंगे। प्रो. हरगोविन्द खुराना अपनी महान खोजों के जरिये हमारे दिमागों में हमेशा रहेंगे। 

Thursday, November 3, 2011

Interview with Prof.Richard Ernst, Nobel Laureate in Chemistry




Prof. Richard R. Ernst is a well known researcher in the field of Nuclear Magnetic Resonance (NMR) Spectroscopy. Prof. Ernst Ernst was awarded the Nobel Prize in Chemistry in 1991 for his contributions towards the development of Fourier Transform nuclear magnetic resonance (FT-NMR) spectroscopy and the subsequent development of multi-dimensional NMR techniques. These underpin applications of NMR both to chemistry (NMR spectroscopy) and to medicine (MRI). He also received Louisa Gross Horwitz Prize in 1991.

Prof. Ernst was born 1933 in Winterthur, Switzerland. His father, Robert Ernst, was teaching as an architect at the technical high school of our city. At the age of 13, He found in the attic a case filled with chemicals and the journey began. After diploma as a "Diplomierter Ingenieur Chemiker" and some extensive military service, Ernst started a PhD thesis in the laboratory of Professor Günthard. Fortunately, he came in contact with a young and brilliant scientist Hans Primas, who never went through any formal studies but nevertheless acquired rapidly whatever he needed for his work that was then concerned with high resolution nuclear magnetic resonance (NMR), a field in its infancy at that time. After some years of work, he became interested in industry and joined Varian Associates in US. During last years at Varian (1966-68), he developed numerous computer applications in spectroscopy for automated experiments and improved data processing with his co-workers. He continued to work on methodological improvements of time-domain NMR with repetitive pulse experiments and Fourier double resonance. In addition, he with his coworkers performed the first pulsed time-domain chemically-induced dynamic nuclear polarization (CIDNP) experiments. In this way, He struggled with the NMR technique, which was about to die at that time and made this technique so profound, accurate and thus useful in medicine that now we are observing the applications of NMR spectroscopy in medicine as Magnetic Resonance Imaging (MRI), which is very important tool in imaging of internal parts of body.
Prof. Richard Ernst is now 78 years old, but very hopeful and energetic and careful towards new responsibilities. He has keen interest in Asian arts, music, and culture. He enjoys interactions with young researchers and motivating them for doing valuable work for the betterment of the society.
Recently Mr. Meher Wan, got opportunity to interact with Prof. Richard R. Ernst on his life and research work. Here are the excerpts of interaction.
First of all, I thank you Professor for accepting my request for your. I feel that your thoughts will motivate young minds to opt science as their career with social responsibility.
Meher Wan.    Your work was considered for Nobel in 1991. After receiving Nobel Prize for Chemistry, How your life has been changed? What type of relax or responsibility do you feel after this award?
Prof. Richard R. Ernst .My life changed very little! You know that our shadow follows us irrespective of superficial successes. I was always my biggest own hurdle to overcome. I had afterward even less time to relax. But indeed, my responsibility grew. I feel obliged to say what I think about our egomaniac course of doing business and structuring our personal lifes. I try to teach as much as I can, being aware that after all it will not help too much except for providing me better sleep.
MW.   Let me ask you about your days of childhood. How do you remember the childhood and boyhood days of Richard? How did you perform in your schools? Where did you study?
R. Ernst. I went to school in our city Winterthur. I was not a good student. I was constantly thinking how I could annoy my teachers. I was almost thrown our of high school. I mostly learned by myself, for example by doing chemical experiments in the basement of our house; and I survived and became a chemist!
MW.   A very curious violinist moved towards chemistry, remember that times for us.
R. Ernst. I had two passions in my youth: chemistry and music. I played the cello and I was composing music besides doing chemistry experiments. But surely, I selected the proper profession!
MW.    You state in your autobiography for website of Swedish Academy, “I was rapidly disappointed by the state of chemistry in the early fifties as it was taught.” I think, this is the trend of schooling of science in many countries till now. According to you what should be the mechanism of education for best understanding of subject by a student? 
R. Ernst. The best way of education is to evoke the curiosity of the students and then let them discover nature and the world themselves. Classroom teaching is absolutely useless, it just causes boredom.
MW.    When you started your Ph.D., what was in your mind? Did you want to serve the nation or industry or somewhat else?
R. Ernst. I wanted to become a respectable person who contributes something of value for mankind and gains respect in this way
MW.  Which quality of NMR spectroscopy impressed you, that you were motivated to invest your whole life for this field of science?
R. Ernst. I was not primarily interested in NMR, but I was thrown into NMR and I started to like it. This happens so often in life. We are not born mathematicians or biologists. But our interests grow accidentally by doing. And then you have to stay in a field until you have achieved something.
MW.  Let us know the journey for making of Fourier Transform NMR. What problems did you face for this work? Any interesting story related to this instrumentation. I read somewhere; the research paper related to this work was rejected two times.
R. Ernst. NMR suffered from very sensitivity and it was necessary to find a way to improve sensitivity. Parallel data acquisition was the solution. It led to Fourier transformation.
MW.   Which scientific goal do you still want to achieve?
R. Ernst. In the moment I am working on pigment analysis in Central Asian paintings in order to understand their origin and dating and for finding means of conservation. NMR is useless for this purpose and I am using Raman spectroscopy.
MW.   What phenomenons lead your group to think about 2D Fourier transform NMR spectroscopy?
R. Ernst. For determining molecular structures, one needs spatial relations between nuclei. A two-dimensional map may contain this type of information.
MW. Now Multi-dimensional spectroscopy is in existence, what do you hope about future of this field?
R. Ernst. I hope that it will find even more wide-spread application.
MW. Techniques developed by you and your group have very wide applications now in different fields of science, How do you feel about? Have you expected the wide range of application of these, when you started the work on it?
R. Ernst.  What could I ask for more? There is nothing better in life than to experience the "usefulness" of your "children"!
MW.   In your valuable life which thing you missed, and want to do?
R. Ernst. I hope to find more time to contemplate on the sense of our lives. I hope earnestly to be less disturbed by obnoxious journalists!!!
MW.   You have interest in culture and art of different continents, how do the arts of Tibet impress you?
R. Ernst. I like in particular the colorfulness and the visuality that allows an easy entrance across language barriers. It contains a wealth of immortal truths.
MW. You often talk about the responsibilities of researchers.
R. Ernst. The responsibility is more with academic teachers than with the researchers. anyway research is only a means of teaching and learning. Academic teachers are the only ones who can express what they think without the danger of losing the job, as politicians and merchants would. Thus they are obliged to take advantage of their privileged position.
MW. What do you want to convey to the young minds who want to opt science as their career? and to common public also.
R. Ernst. When ever you try to honestly evaluate the surroundings and our responsibilities to improve them for the sake of future generations, you are in the midst of scientific reasoning and it is not far of becoming a professional scientist, researcher and in particular a responsible teacher.
I am very grateful to you that you invested your precious time for us. I am studying your articles about science and society. Hoping for next conversation on society, science and cultures very soon. 

(This interview is published in 'Dream 2047' a bilingual magazine of Vigyan Prasar of DST, Govt of India, you can get it by clicking the link, you can read it in Hindi )

Sunday, October 30, 2011

दीवाली के बाद के संकट

                                             ----मेहेर वान


 दीपावली गुज़रते ही देश के विभिन्न शहरों से वायुप्रदूषण और ध्वनिप्रदूषण से जुड़ी खबरें आने लगीं हैं। पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार दीपावली त्यौहार के बाद कोलकाता के वातावरण में हानिकारक गैस सल्फ़र डाई आक्साइड की मात्रा दो गुनी से भी अधिक मापी गयी है, कोलकता के कई अन्य स्थानों पर नाइट्रोजन डाई आक्साइड की मात्रा भी सामान्य से काफ़ी ऊपर पायी गयी है। वहीं वातावरण में हानिकारक पदार्थों के सूक्ष्म कणों की मात्रा भी सामान्य से तीन गुनी मापी गयी है। कोलकाता की संयुक्त कमिश्नर दमयन्ती सेन ने बताया कि दिवाली के दिन 713 व्यक्ति प्रतिबन्धित सीमा से ज़्यादा आवाज वाले पटाखे चलाते हुये गिरफ़्तार किये गये हैं और 883 किलोग्राम प्रतिबन्धित पटाखे बरामद किये गये हैं। इससे भी बुरा हाल चेन्नई का है, यहाँ के कुछ स्थानों पर वायु में हनिकारक पदार्थों के सूक्ष्म कणों की मात्रा सामान्य से चौदह गुनी मापी गयी है। तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बॊर्ड ने इस साल कुछ विशेष स्थानों पर वायु और ध्वनि प्रदूषण मापक यंत्र लगाये थे जिनसे दीपावली के दिनों में पूरे समय प्रदूषण पर नज़र रखी गयी। दिल्ली समेत अन्य शहरों में भी वायु में हानिकारक गैसों और ज़हरीले सूक्ष्म कणॊं की मात्रा सामान्य से कई गुनी पायी गयी है। वातावरण में अचानक बढी हानिकारक और ज़हरीले पदार्थों की यह मात्रा सामान्य होने में काफ़ी समय लग जायेगा। इन दिनों में ये गैसें और अतिसूक्ष्म कण हमारी साँस के साथ फ़ेफ़ेड़ों में जाकर कई बीमारियाँ फ़ैला रहे हैं।

      आँकड़े बताते हैं कि शहरों में हर दिवाली के बाद अस्पतालों में साँस और श्वसन तंत्र से सम्बन्धित रोगियों की संख्या सामान्य से कई गुना अधिक हो जाती है, इसके साथ ही बच्चों में आँखों से जुड़ी समस्यायें भी दीपावली के वायुप्रदूषण के कारण बढ़ जातीं हैं। शहरों में अधिक आबादी घनत्व होने के कारण पहले से ही वायुप्रदूषण सामान्य मानकों से अधिक होता है। दीवाली में तेज़ आवाज़ वाले, हानिकारक पदार्थों से बने पटाखों और फ़ुलझड़ियों के कारण प्रदूषण की समस्या और भी भयानक हो जाती है। ये पटाखे निर्माण से लेकर प्रयोग होने तक ज़बर्दस्त तरीके से प्रदूषण फ़ैलाते हैं।
      दीवाली पर इस्तेमाल होने वाले पटाखे और फ़ुलझड़ियाँ बनाने में जिन पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है वे पदार्थ बहुत ही हानिकारक होते हैं, इनमें से अधिकतर पदार्थ ज़हरीले भी होते हैं। पटाखे फ़ोड़ने पर उत्सर्जित होने वाले पदार्थों में ताँबा, कैडमियम, लैड, मैग्नीशियम, सोडियम, ज़िंक, पोटेशियम समेत सल्फ़र डाई ऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड, नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड और अन्य हानिकारक गैसें प्रमुख हैं। कॉपर यानि ताँबा के अतिसूक्ष्म कण हमारी साँस की नली में तेज़ जलन पैदा करते हैं। कैडमियम एक ज़हरीला पदार्थ है और यह किडनी को गन्भीर नुकसान पहुंचा सकता है। अत्यधिक मात्रा में कैडमियम शरीर में जाने से से उच्च रक्त दाब की शिकायत हो सकती है। पटाखों के निर्माण में लैड का उपयोग आवश्यक रुप से होता है। शायद बहुत कम लोगों को जानकारी हो कि लैड मानवों के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र पर आक्रमण करता है, सामान्य से अधिक मात्रा में शरीर में जाने से कैंसर होने का खतरा भी रहता है। पटाखों से निकलने वाली गैसें भी वातावरण में प्रदूषण उत्पना करतीं हैं और साँस से रोग फ़ैलाने में सहायक होतीं हैं। जो मज़दूर इनकी सहायता से पटाखों का निर्माण करते हैं उन्हें इनसे होने वाली हानियों के बारे में जानकारी नहीं होती, और वे अपने शरीरों को गम्भीर नुकसान पहुँचाते हैं। इस प्रदूषण से छोटे बच्चों को सबसे अधिक मुश्किल होती है, बहुत से बच्चों को इन ज़हरीले सूक्ष्म कणों के आँखों में जाने से आँखों की समस्यायें बचपन मे ही शुरु हो जाती हैं।
  सन 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने त्यौहारों पर पटाखों और फ़ुलझड़ियों से होने वाले ध्वनि और वायु प्रदूषण पर सख्त निर्देश दिये थे। जिनमें पटाखों की अधिकतम आवाज़ और निर्माण में प्रयुक्त होने वाले तत्वों के सम्बन्ध में मानक निर्धारित किये गये थे। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और दिल्ली पुलिस के मानकों के अनुसार पटाखों से होने वाली अधिकतम आवाज़ पटाखे से 4 मीटर दूरी पर 125 डेसीबल से अधिक नहीं होनी चाहिये। अलग-अलग सर्वे के अनुसार कहा जाता है कि अस्सी प्रतिशत पटाखे मानकॊं पर खरे नहीं उतरते। यही पटाखे हम अपने क्षणिक आनन्द के लिये इस्तेमाल करते हैं, मगर यह नहीं सोचते कि यह हमारे लिये कितने नुकसानदायक है। हमें इनसे होने वाले नुकसानों का इसलिये भी पता नहीं चलता क्यों कि थॊड़ी से सावधानी बरत कर हम अपने आप को सिर्फ़ जलने से बचाकर यह महसूस करते है कि अब हमें पटाखों से कॊई नुकसान नहीं है। लेकिन दीवाली के बाद अगर आपको साँस और आंखों से सम्बन्धित कॊई शिकायत अचानक होती है तो इसमें पटाखों का योगदान प्रमुख होता है।

Friday, October 28, 2011

जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के साथ छेड़छाड़

--मेहेर वान


 
कुछ दिनों पहले अमेरिका में वैज्ञानिकों, अवकाश प्राप्त सरकारी अफ़सरों और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के एक पैनल ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सरकारों से कुछ ठोस कदम उठाने की सिफ़ारिश की। इस पैनल का मानना है कि पर्यावरण सुधार के लिये अब कुछ क्रांतिकारी तरीकों का इस्तेमाल होना चाहिये। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और यह बात तय हो चुकी है कि इसकी प्रमुख ज़िम्मेदार कार्बन डाई ऑक्साइड गैस है। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस सूरज से आ रही गरमी को अपने अंदर सोख लेती है। पृथ्वी पर इस गैस की मात्रा वनॊं के जलने, बड़ी मात्रा में यातायात और जनसंख्या बढ़ने से लगातार बढ़ रही है। इस कारण पृथ्वी के वातावरण में गरमी सोखने की क्षमता भी लगातार बढ़ रही है। यही कारण है कि धरती गर्म हो रही है और वैश्विक तापन की विभीषिका से विश्व जूझ रहा है।
अमेरिका में वाशिंगटन स्थित ’बाईपार्टीसन शोध केन्द्र’ के इस दल ने सरकारों को सुझाव दिया है कि  वे अपने अपने देशों में पर्यावरण सुधार के लिये अतिवादी इंजीनियरिंग और तकनीक के विकास और क्रियान्वयन के लिये वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करें। एक समय तक ऐसा कहा जाता था कि अंतरिक्ष में सूरज से आ रही गर्मी को वापस अंतरिक्ष में भेजने के लिये बड़े-बड़े परावर्तक शीशे लगाने और वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड को पृथक करके कहीं इकट्ठा करके ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने और पृथ्वी को ठंडा करने की नौबत कभी नहीं आयेगी। न ही कभी धरती को हमारे रहने लायक बनाये रखने के लिये, धरती की सतह पर सूक्ष्म कणों को तितर-बितर करने और भूगर्भ-अभियान्त्रिकी जैसी कठिन और अत्याधिक मंहगी तकनीकों का सहारा करना पड़ेगा। लेकिन वैज्ञानिकों, अफ़सरों और राजनयिकों के 18 सदस्यों वाले दल के अनुसार अब इन अतिवादी तकनीकों का उपयोग शुरु कर देना चाहिये।
समूचे पृथ्वी ग्रह को अतिवादी कृत्रिम ढ़ंगों से अपने अनुसार बदलने को कुछ लोग अचम्भित कर देने वाला मानते हैं। इसी दल के एक सदस्य, हार्वर्ड और कैलगैरी विश्वविद्यालय के डेविड कीथ भी इसे अचम्भित करने वाला निर्णय मानते हैं। लारेन्स लिवरमोर नेशनल लैब की उपनिदेशक और इस दल की उप-प्रमुख  जेन लोंग इसे सामान्य मानतीं हैं वह कहती हैं कि मानव ने तेजी से बड़ी मात्रा में वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस उत्सर्जित करके धरती से पहले ही खतरनाक छेड़छाड़ की है। उनके अनुसार अब हम इसे नज़रअंदाज़ करते हुये आगे नहीं बढ़ सकते। यह बात और है कि इस तरह की कृत्रिम छेड़्छाड़ हम अचानक कर रहे हैं और पृथ्वी इस छेड़छाड़ से परिचित नहीं है। वहीं, कुछ पर्यावरणविद इस तरह के निर्णयों को भ्रमित और खतरनाक मानते हैं।
पर्यावरण तापन से निबटने के लिये प्रयोग में लायी जाने वाली तथाकथित अतिवादी तकनीकों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहली तकनीक के अंतर्गत पृथ्वी पर अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैस -कार्बन डाई ऑक्साइड को वातावरण से अलग करके बड़े बड़े पाइपों द्वारा भूगर्भ में इकट्ठा कर दिया जाये। इस तरह का भंडारण धरती के उन हिस्सों में किया जाता है जहाँ भूगर्भ में “बासाल्ट” नामक पदार्थ की चट्टानें होती हैं। ये चट्टानें कार्बन युक्त गैस से रासायनिक क्रिया करके चूना पत्थर में बदल जाती हैं। यह प्रक्रिया प्राकृतिक प्रकिया से एकदम मिलती जुलती है। अतः इस प्रयोग से भविष्य में बहुत बड़ी हानि या खतरे महसूस नहीं होते। यह कहना है स्टेन्फ़ोर्ड विश्वविद्यालय की पर्यावरणविद ’डॉ. केन काल्डेरिया’ का। आइसलैंड के ज्वालामुखी प्रभावित इलाके में वैज्ञानिकों की अंतर्राष्ट्रीय टीम इस तरह के कुछ प्रयोग ’कार्बफ़िक्स’ नाम से शुरु करने वाली है। जिसके तहत ज्वालामुखी के विस्फ़ोट से निकलने वाली गैसों से कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को अलग करके लम्बे पाइपों द्वारा भूगर्भ में उस स्थान पर भंडारित कर दिया जायेगा, जहाँ भूगर्भ में बासाल्ट पत्थर की चट्टानें हैं। ये बासाल्ट की चट्टानें गैस के कार्बन से रासायनिक अभिक्रिया करके चूना पत्थर बना देंगीं जो कि भविष्य में पूर्णतः हानिरहित होगा। इस तरह कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर लाने की योजना है।  
पर्यावरण सुधार से जुड़ी प्रस्तावित अतिवादी तकनीकों में से दूसरे प्रकार की तकनीकें विवादों के घेरे में हैं। इन तकनीकों में से एक तकनीक है, पृथ्वी के वातावरण के ऊपरी हिस्से में बड़े-बड़े परावर्तक शीशे लगाना। जिससे सूरज से आ रहा प्रकाश और गरमी इन विशालकाय शीशों से परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में चली जाये। इसके साथ ही यह भी प्रस्ताव रखा गया है कि वातावरण में ऐसे सूक्ष्म कण कृत्रिम रूप से बिखेर दिये जायें जो कि प्रकाश के साथ आ रही गरमी को परावर्तित करें। इन्हीं तकनीकों में से एक है, कृत्रिम विधि से समुद्र में वाष्पन करके अधिक मात्रा में बादलों का निर्माण करना ताकि पृथ्वी को इन बादलों से ढ़ंका जा सके। इससे धरती ठंडी रहेगी और इसे वैश्विक तापन से बचाया जा सकेगा। मगर दूसरे प्रकार की ये सभी तकनीकें पृथ्वी की प्राकृतिक प्रकियाओं पर गम्भीर असर डाल सकतीं हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इन अतिवादी कृत्रिम तकनीकों के प्रयोग से घरती के आंतरिक तंत्र में गड़बड़ी आ सकती है क्योंकि ज़रूरी नहीं है कि धरती इस तरह के बदलावों के लिये तैयार हो। अमेरिकी विकास केंद्र के ’जोइ रोम’ का मानना भी यही है। उनके अनुसार वैज्ञानिकों, अफ़सरों और राजनेताओं के इस पैनल को इस तरह की अतिवादी कृत्रिम तकनीकॊं के तत्कालीन उपयोग के मशविरों को तुरन्त वापस ले लेना चाहिये। धरती के साथ इस तरह के प्रयोग अभी बहुत ही खतरनाक साबित हो सकते हैं क्योंकि इन प्रयोगों के परिणामों के बारे में अभी कोई भी कुछ नहीं जानता। वैज्ञानिक इन तकनीकों के विस्तृत परिणाम खोजने के के बाद ही इनका उपयोग बड़े पैमाने पर करने के पक्ष में हैं, ताकि कोई बड़ी समस्या का सामना न करना पड़े।

Thursday, October 20, 2011

ग्लोबल वॉर्मिंग समस्या के निदान के लिये महत्वाकाँक्षी प्रयोग

                                                                                               --मेहेर वान



      पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या ने विश्व स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है। जहाँ देशों की सरकारें और आम जनता भी अब ग्लोबल वॉर्मिंग के विषय के बारे में चिंतित नज़र आती हैं, वहीं विश्व भर के पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भी जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर विशेष रूप से शोध कार्य शुरु कर दिया है। जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करनी बहुत ही आवश्यक है। वर्तमान परिस्थितियों में यह कार्य में बहुत ही कठिन है। ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन का सीधा सम्बन्ध उद्योग जगत से है। फ़्रिज़ और एयर कंडीशनर एक तबके के जीवन की महत्वपूर्ण ज़रूरतें बन चुके हैं। तमाम उद्योगों और आम जीवन के कई उपकरणों का उपयोग अब हम बन्द नहीं कर सकते। यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित देश विकासशील देशों पर कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने का दबाव बनाते रहते हैं। यह अलग बात है कि अब भी विकसित देशों की तुलना में विकासशील देश बहुत कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं। इस दबाव के पीछे विकसित देश अक्सर यह दलील भी देते हैं कि विकसित देशों में जीवन स्तर इतना ऊँचा हो चुका है कि उनका कार्बन उत्सर्जन कम नहीं किया जा सकता। साथ ही विकसित देश जीवन स्तर भी कम नहीं करना चाहते। इस कारण कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बहुत कम करके जलवायु परिवर्तन रोकने का सपना निकट भविष्य में पूरा नहीं हो सकता। अतः इन परिस्थितियों में ग्लोबल वार्मिंग पर पूरा नियंत्रण हो पाना भी असंभव सा है।
       अमेरिका की सहायता से आइसलैंड के वैज्ञानिकों का एक दल इस विडम्बना से निबटने की तैयारी में है। यह दल आइसलैंड में ही उन स्थानों पर कुछ परीक्षण कर रहा है, जहाँ पिछले साल फ़ूटे ज्वालामुखियों से निकली राख और हानिकारक गैसों की मात्रा बहुत अधिक है। आइसलैंड की राजधानी के पास में ही स्थित रेकजाविक भूतापीय ऊर्जा केन्द्र के आसपास यह प्रयोग किया जायेगा। इस प्रयोग में लगभग 11 मिलियन डॉलर का खर्च आने की सम्भावना है। यहाँ यह भी बताते चलें कि आइसलैंड देश में भूतापीय रियक्टर्स ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोतों में से एक हैं। इस तरह से उत्पन्न हुयी ऊर्जा से कार्बन उत्सर्जन बहुत कम मात्रा में होता है। इस नवीनतम प्रयोग के बाद आइसलैंड कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने की दिशा में सशक्त कदम उठाने वाला प्रमुख देश बन जायेगा। इस प्रयोग को ”कार्बफ़िक्स” नाम दिया गया है।
इस प्रयोग कॊ वातावरण में कार्बन की मात्रा को नियंत्रित करने की दिशा में क्राँतिकारी प्रयास माना जा रहा है। 
      इस प्रयोग के तहत वैज्ञानिक वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड जैसी महत्वपूर्ण ग्रीन हाउस गैस को वातावरण की तमाम गैसों से अलग करके कुछ लम्बे पाइपों की सहायता से भूगर्भ में हमेशा के लिये भंडारित कर देंगे। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भाग वातावरण की तमाम गैसों के मिश्रण से कार्बन डाई ऑक्साएड को अलग करना है, जिसके लिये वैज्ञानिक अत्यन्त आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करेंगे। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस ग्लोबल वॉर्मिंग में सबसे खतरनाक गैस मानी जाती है, इसीलिये इसपर नियंत्रण पाने की दिशा में लगतार कदम उठाये जाते हैं। पृथक की गयी कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को लम्बे पाइपों के जरिये भूगर्भ में सोलह हज़ार फ़ीट नीचे ज़मीन के अन्दर पानी में मिलाकर इतनी ही गहराई में फ़ैलीं बासाल्ट की चट्टाअनों पर बिखेर दिया जायेगा।  कार्बन डाई ऑक्साइड और पानी मिलकर एक प्रकार ले अम्ल का निर्माण करते हैं जो को बासाल्ट पत्थर से रासायनिक अभिक्रिया करके चूना पत्थर बना देता है। खास बात यह है कि यह चूना पत्थर हानि रहित होता है और इसकी निर्माण प्रक्रिया पूर्णतः प्राकृतिक होती है। इस प्रयोग से धरती को कोई खतरा नहीं होना चाहिये, ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है।
        हाँलाकि, इस क्राँतिकारी प्रयोग के परिणाम आने में अभी वक़्त लग जायेगा। मगर इस प्रयोग से जुडे वैज्ञानिकों का मानना है कि यह प्रयोग भविष्य में बहुत ही आसानी से और बहुत ही कम समय में पृथ्वी पर कार्बन की मात्रा को नियंत्रित कर देगा। अगले छः से बारह महीनों में लगभग दो हज़ार टन कार्बन डाई ऑक्साइड धरती के अन्दर भंडारित करके बासाल्ट से चूना पत्थर बनाने की योजना है। यह मात्रा कार्बन डाई ऑक्साइड की बहुत बड़ी मात्रा है, जो कि आइसलैंड के वातावरण में बहुत स्पष्ट परिवर्तन लायेगी। इस महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सिगुर्दर गिस्लसन का कहना है कि यह यह प्रयोग छः से बारह महीनों तक चलेगा और इसके बाद ही हम इस प्रयोग के निष्कर्षों के बारे में कुछ कह पायेंगे। लेकिन यह हमारे लिये बहुत ही महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट है और इसके ज़रिये हम युवा वैज्ञानिकों को अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल विश्व की चुनौतियों से निबटने के लिये करने का मौका देंगे।
      इस प्रयोग के बारे में कोलंबिया विश्वविद्यालय के डॉ. वैलेस ब्रोकर का कहना है, “हम चाहे पचास साल बाद कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का भण्डारण करें, लेकिन हमें करना यही पड़ेगा। क्योंकि वर्तमान परिस्थियों में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करना बहुत ही असंभव कार्य है”। इसी प्रोजेक्ट से सम्बन्धित द्ल के एक और सदस्य डॉ. बर्गर सिग्फ़ुसन कहते हैं कि यह पता करने में काफ़ी वक़्त लग जायेगा कि बासाल्ट की चट्टानों के ऊपर पानी और गैस का मिश्रण किस तरह फैला है, और यह किस हद तक रासायनिक अभिक्रिया करता है, मगर यह प्रक्रिया प्राकृतिक है, जिसके कोई नुकसान नज़र नहीं आते।
      इसके अलावा कुछ वैज्ञानिक इस तरह के प्रयोगों को अतिवादी प्रयोगों की संज्ञा देते हैं। इनका मानना है कि इस तरह के प्रयोग भले ही निकट भविष्य में हानि रहित प्रतीत होते हों परन्तु धरती इस तरह के भण्डारण और अचानक बदलावों के प्रति सावधान नहीं हैं। इस तरह के प्रयोगों का सबसे बड़ा खतरा यही है कि इन प्रयोगों के सम्भावित परिणामों के बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। इन प्रश्नों के जबाब में कार्बफ़िक्स प्रयोग के एक वैज्ञानिक का कहना है कि कार्बन डाई आक्साइड गैस का पृथ्वी के अन्दर भण्डारण नया नहीं है, नॉर्वे की प्राकृतिक गैस की खदानों से उत्सर्जित कार्बन डाई ऑक्साइड पहले से ही उत्तरी सागर के पास कई सालों से भण्डारित की जा रही है।

        

Tuesday, September 6, 2011

डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग- (भाग-२)



डी.एन.ए. की खोज की कहानी बहुत नयी नहीं है, यह यात्रा उन्नींसवीं शताब्दी में शुरु हुयी थी। जब लोग जीन्स और आनुवाँशिकता के स्त्रोत के बारे में जिज्ञासु थे, और बहुत कुछ जानते भी नहीं थे। 1860 के बाद तक जीन रहस्यमयी ब्लैक-बॉक्स से कम नहीं था। लोग सोचते थे कि जीन प्रोटीन से मिलकर बना होना चाहिये। क्रोमोसोम में वास्तव में कुछ रहस्यमयी ही था, जिसे न्यूक्लिक एसिड यानि डी.एन.ए. के रूप में पहचाना गया। डी.एन.ए. को मानव शरीर से सबसे पहले स्वीडन के एक डॉक्टर फ़्रेडरिक मिशचर ने पृथक किया था। 1869 में डॉ. मिश्चर जर्मनी के ट्यूबिंगन शहर में घायल सैनिकों का इलाज़ और कुछ व्यक्तिगत शोध कर रहे थे। वहीं उन्होंने एक घायल सैनिक की पट्टी में लगे मवाद से उस सैनिक मरीज़ का डी.एन.ए. पृथक किया था। डॉ. मिशचर का अन्दाज़ा था कि शायद डी.एन.ए. ही आनुवाँशिकता की कुँजी है और यह आनुवाँशिकता की भाषा को उसी तरह दर्शा सकता है जैसे कि किसी भाषा के 20-30अक्षरों के ज़रिये पूरी भाषा का आधार तय होता है। लेकिन, डॉ. मिशचर इसे व्यक्तिगत विश्वास ही रख पाये और तब इस सम्बन्ध में कोई बड़ी खोज नहीं हुयी। साल दर साल बीतते चले गये। 
  बींसवी शताब्दी में जेम्स वाटसन नामक एक युवा वैज्ञानिक था जो यह मानता था कि जीन प्रोटीन से नहीं बल्कि डी.एन.ए. से बने होते हैं, लेकिन विज्ञान और व्यक्तिगत विश्वास में तब तक कोई सम्बन्ध होता जब तक व्यक्तिगत विश्वास को ठोस भौतिक आधारों पर सही न सबित कर दिया जाये। अपने व्यक्तिगत विश्वास को सही साबित करने के लिये जेम्स वाटसन कई संस्थानों से होते हुये और असंतुष्ट होकर सही संस्थान और साथियों की खोज में कैवेन्डिश लेबोरेटरी पहुँचा, जहाँ उसकी मुलाकात उसी के स्तर की प्रतिभा वाले युवा वैज्ञानिक “फ़्राँसिस क्रिक” से हुई। फ़्राँसिस क्रिक तब तक पैतीस साल का हो चुका था और उसके पास अब तक पी.एच.डी. की डिग्री भी नहीं थी। जिस इन्स्ट्रुमेंट यानि वैज्ञानिक उपकरण पर वह काम करके, गर्म जल की अत्यधिक दबाव की स्थिति में श्यानता(Viscosity) मापना चाह रहा था, वह उपकरण जर्मनी के द्वारा उसके विश्वविद्यालय में की गयी बमबारी में ध्बस्त हो गया था। यह बात द्वितीय विश्व युद्ध की है।  परेशान होकर वह भौतिकी के साथ साथ जीवविज्ञान में भी रुचि लेने लगा। उसकी आदत थी कि वह अपनी परेशानियों से ज़्यादा दूसरों की परेशानियों की फ़िक्र किया करता। इसी आदत ने उसे जीन और डी.एन.ए. से परिचित करवाया। इसी के साथ जब तेजस्वी और जीवविज्ञान की समझ रखने वाला अमेरिकी “जेम्स वाटसन” और मेधावी, भौतिकी की समझ रखने वाला, मगर लक्ष्य हीन ब्रिटिश “फ़्राँसिस क्रिक” की जोड़ी बनी तो यह जोड़ी वैज्ञानिक इतिहास की सबसे बेहतरीन और सफ़ल जॊड़ी के रूप में उभरकर सामने आयी। इसी जोड़ी ने सन 1953 में डी.एन.ए. की संरचना की खोज की घोषणा की। “क्रिक” ने एक कार्यक्रम में खुश होकर कहा था “हमने जीवन का रहस्य खोज लिया है” । लेकिन “वाट्सन” को अब भी यह डर था कि उन लोगों से कोई बड़ी भूल तो नहीं हो गई है जिसके कारण इतने सनसनीखेज परिणाम आ रहे हैं। निश्चित रूप से वे लोग गलत नहीं थे और जीव विज्ञान के एक नये काल की शुरुआत हो चुकी थी। बाद में पता लगा कि डी.एन.ए. में एक कोड होता है जो कि दोहरी कुँडली में सीढियों की तरह सजा रहता है। इस रहस्यमयी कोड को डिकॊड यानि कि इसका रहस्य समझने की काफ़ी कोशिश की गयी। कई असफ़लताओं के बाद दो वैज्ञानिकों “मार्शल नीरेनबर्ग” और “जॉन मथाई” ने डी.एन.ए. की कोडिंग का रहस्य खोज लिया। यह भी वैज्ञानिक दुनियाँ की एक सनसनीखेज घटना थी। सन 1965, तक डी.एन.ए. के सभी कोड जाने जा चुके थे और इस तरह नये आनुवाँशिकी युग का नीव रखी जा चुकी थी।
इन सब खोजों का जैविकी के नज़रिये से बहुत महत्व था और ये खोजें बहुत क्रांतिकारी और सनसनी के रूप में आविष्कारित हुयीं थी, मगर फिर भी इन खोजों का मानव की अद्वितीय पहचान से कोई सम्बन्ध नहीं था। सन 1985 तक यह सिद्ध नहीं हो पाया था कि हर व्यक्ति का डी.एन. ए. क्रम अलग अलग होता है, इसलिये यह धारणा प्रबल थी कि हर मानव का डी.एन.ए. क्रम (DNA sequence) समान होता है। सन 1985, में लिसेस्टर विश्व्वविद्यालय के डॉ. एलेक जेफ़री ने डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग की खोज करके एक बार फिर सनसनी फ़ैला दी। एलेक जैफ़री ने सिद्ध किया, कि हर एक का डी.एन.ए. क्रम किसी दूसरे से एकदम अलग होता है, चाहे जैविक रूप से वे एक दूसरे के सगे-सम्बन्धी ही क्यों ना हो। माँ और बेटा या भाई- भाई के डी.एन.ए. क्रम स्पष्ट रूप से अलग अलग होते हैं। यह बात और है कि बेटे के डी.एन.ए. क्रम माँ-पिता पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं मगर समान नहीं होते। इसी स्पष्टता और अद्वितीय विशेषताओं की फ़ोरेंसिक विज्ञान और स्पष्ट रूप से पहचान सुनिश्चित करने में ज़रुरत भी थी। यहीं से डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग की सहायता से मानव विशेष की पहचान का दौर शुरु हुआ। आज विश्व के लगभग हर देश के न्यायालय डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिग के साक्ष्यों कों सबसे ज़्यादा सटीक और विश्वस्यनीय मानते हैं। भारत विश्व का ऐसा तीसरा देश था जहाँ डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग को देश के न्यायालयों में उत्कृष्ट और सबसे अधिक विश्वस्यनीय साक्ष्य के रूप में मान्यता मिली थी और हमारे देश में अब तक कई बड़े और विवादास्पद मामले इस तकनीक से सुलझाये गये हैं। 


इस तकनीक को भारत में इस मुकाम तक लाने में वैज्ञानिक और औद्यैगिक अनुसंधान परिषद के Center for Cellular and Molecular Biology, हैदराबाद के डॉ. लालजी सिंह को जाता है। डॉ. लालजी सिंह ने न सिर्फ़ भारत में बल्कि, डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक को बेहतर बनाने में सतत वैज्ञानिक स्तर पर योगदान दिया, साथ ही उन्होंने इस तकनीक को भारतीय न्यायालयों की न्यायप्रक्रिया में सहभागी बनाने में भी सक्रिय योगदान दिया, जिस कारण भारत इस तकनीक का न्यायालयों में उपयोग करने वाला अमेरिका और ब्रिटेन के बाद विश्व का तीसरा देश बना।
  वर्तमान में जीवन के तमाम क्षेत्रों में व्यक्ति की सही पहचान करने के लिये डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग का इस्तेमाल होता है। इस तकनीक की सहायता से वर्तमान में सबसे अधिक उत्कृष्टता और विश्वस्यनीयता के साथ जीव की पहचान की जाती है। आपराधिक मामलों में घटना स्थल पर मिले खून के छींटॊं से डी.एन.ए. सेम्पल एकत्र करके उनका मिलान अभियुक्यतों के डी.एन.ए. से करके सही अपराधी को पहचाना जाता है। यह प्रक्रिया भारत और विश्व के अन्य तमाम देशों में कई महत्वपूर्ण मामले सुलझा चुकी है। आजकल बाज़ार में नकली उत्पादों की भरमार है। हर एक उत्कृष्ट उत्पाद का नकली संस्करण बाज़ार में उपलब्ध है। इस समस्या से मिबटने के लिये कम्पनियों ने अपने उत्पाद के रैपर पर होलोग्राम देना शुरु कर दिया। लेकिन, इससे भी बेहतर तकनीक उपलब्ध कराई डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक ने। आज विश्व की सर्वश्रेष्ठ कम्पनियाँ अपने सर्वोत्कृष्ट उत्पादों के कवर के नीचे, अपनी जानकारी वाले डी.एन.ए. क्रम से युक्त पदार्थ रख देती हैं, जिससे समय समय पर बाज़ार में संशय होने पर उत्पाद की सत्यता की जाँच आसानी से डी.एन.ए. डिकोडिंग करके की जाती है। जो लोग अच्छी नस्ल के कुत्ते, तेज़ दौड़ने वाली असली नस्ल के घोड़े या अन्य जानवर पालते हैं वो जानवर खरीदने से पहले ही उस जानवर की डी.एन.ए. क्रम का विश्लेषण करवा करके यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि जानवर जिस नस्ल का बताकर दिया जा रहा है, वस्तुतः वह उस नस्ल का है या नहीं।


 डी.एन.ए. क्रम विश्लेषण की तकनीक में अब इतनी प्रगति हो चुकी है कि रक्त की अल्प मात्रा या बाल की जड़ का टुकडा यानि उपयुक्त जीव की कोशिकाओं का छोटा सा टुकड़ा भी इन विश्लेषणों के लिये पर्याप्त है। अमेरिकी फ़ौज में हर नये सैनिक की भर्ती के समय ही उसका डी.एन.ए. सैम्पल ठंडे भंडारग्रहों में भंडारित कर लिया जाया है। जब कॊई सैनिक किसी युद्ध में मारा जाता है और उसकी पहचान उसके बिखर चुके टुकड़े टुकडे हो चुके शरीर से नहीं हो पाती है तो उस बिखरे हुये शरीर से कोशिकायें निकालकर उनका डी.एन.ए. विश्लेषण करवाकर, भंडार गृह में रखे गये सैम्पल्स से मिलान करवा कर मृतक सैनिक की सही पहचान की जाती है। आज इस तकनीक का इस्तेमाल पौधों की उत्कृष्ट संकरित प्रजातियाँ बनाने में या उनके उद्गम की सही पहचान में, जानवरों के लिंग परीक्षण और वन्य जीव संरक्षण में किया जाता है। इसके साथ ही इसका इस्तेमाल परिवारों के निजी मामलों को सुलझाने में जैसे- किसी बच्चे के असली पिता को पहचानने में, बच्चे के खो जाने की स्थिति में उसकी सही पहचान करने में या अस्तपालों में बच्चे के जन्म के समय बच्चा बदल जाने की स्थिति में सही माता पिता की सटीक पहचान में डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक का इस्तेमाल भारत और विश्व में बड़ी विश्वस्यनीयता के साथ हो रहा है। 
बेशक़ डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिटिंग तकनीक ने जैविक पहचान को सुनिश्चित करने की दिशा में क्राँतिकारी बदलाव लाया है। लेकिन अभी यह तकनीक आम जनता के रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पहचान साबित करने के लिये उपयुक्त नहीं है। डी.एन.ए.क्रम की पहचान हमारे जैविक  इतिहास और आनुवाँशिकता से जुडी पहचान है। इस पहचान का इस्तेमाल “विशिष्ट पहचान प्राधिकरण” द्वारा संचालित किये जा रहे हर एक भारतीय निवासी की पहचान सुनिश्चित करने के क्रम में नहीं किया जा सकता। इसके कई वाजिब कारण हैं। यह अभी अपेक्षतया बहुत मँहगी तकनीक है। इस तरह से पहचान का प्रमाणन सिर्फ़ उच्च कोटि की विश्वस्यनीय प्रयोगशालाओं में ही हो सकता है। एक अरब से भी अधिक लोगों का डी.एन.ए. डाटा एकत्र करना और उसे संग्रहित करना बहुत ही चुनौती और खतरे भरा कार्य है। किसी व्यक्ति के डी.एन.ए. डाटा में की गयी छॆड़्छाड़ के बहुत ही गंभीर परिणाम होंगे। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि डी.एन.ए. और जीनोम के संबन्ध में पूरे विश्व में जिस गति के साथ शोध कार्य चल रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि शायद वह दिन दूर नहीं जब मानव डी.एन.ए. को परिवर्तित करने की विधि जान जाये। अगर ऐसा हो जाता है तो इस डी.एन.ए. फ़िंगर प्रिटिंग तकनीक विश्वस्यनीय नहीं रहेगी। उस समय वैज्ञानिकों को अपराधियों की पहचान के नये तरीके खोजने पड़ेंगे। डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिटिंग तकनीक के सम्बन्ध में ऎसे तमाम खतरों और जटिलता को देखते हुए इसे भारतीय अद्वितीय पहचान प्राधिकरण ने अद्वितीय पहचान कार्यक्रम की परिधि से अब तक बाहर रखा है।   
                               --Meher Wan

• डी.एन.ए.- फ़िंगरप्रिंटिंग-( भाग-१)



2०वीं और २१वीं सदी में समय बहुत तेज़ी से बदला और समय के साथ मानव की पहचान सुनिश्चित करने के मानक भी बदलने पड़े। एक समय फोटो पहचान पत्र ने ऑफ़िसों, खुफ़िया संस्थानों और रक्षा-अनुसंधान से जुड़े संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों की पहचान सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया था, लेकिन डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी के अस्तित्व में आने के बाद फोटो से छेड़-छाड़ इतनी आसान हो गई कि फोटो पहचान पत्रों की विश्वस्यनीयता खतरे में पड़ गई। इसके बाद सर विलियम हर्शेल ने, जो कि 19वीं सदी के ब्रितानी प्रशासक थे, उँगलियों के निशानों को मानव पहचान का आधार साबित किया। इस तरह बींसवीं सदी के अन्त तक उंगलियों के निशान रोज़मर्रा के कार्यों में सामान्य जनता की पहचान सुनिश्चित करने का साधन बने रहे, मगर ज्ञान के विस्तार से कुछ लोगों ने इस तकनीक के दुरुपयोंगों को भी ढ़ूंढा। तब पहचान का नया आधार तलाशा जाने लगा। तत्पश्चात, आँख की पुतली का फोटोग्राफ़ पहचान का आधार उभरकर सामने आया। इसी बीच फ़ोरेंसिक, आपराधिक या अन्य पहचान सम्बन्धी मामलों में डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग का भी उद्भव हुआ। डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग के आविष्कार के पीछे मूल रूप से आपराधिक और फ़ोरेंसिक मामलों की जटिलता थी, जिसे कि वैज्ञानिक सुलझाना चाह्ते थे, मगर अब कुछ लोग इसे सामान्य जन के लिये भी पहचान का एक सशक्त आधार मान रहे हैं। समय के साथ इस तकनीक ने भी विस्तार पाया, इस तकनीक को आसान बनाने के प्रयास हुये, जिनमें से कई प्रयास बड़े स्तर पर सफ़ल भी हुये, इन प्रयासों के कारण यह तकनीक आज भारत समेत विश्व के तमाम न्यायालयों में पहचान सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण साधन मानी जाती है।    

डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक के पीछे जैव-तकनीकी के विकास की लम्बी कहानी है। असल में इस तकनीक की खोज से पहले, मानव या जीव की पहचान साबित करने में इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में नहीं सोचा गया था। ऐसा कहना ज़्यादा उचित होगा कि वैज्ञानिक मानव शरीर सम्बन्धी विषयों पर विस्तृत अध्य्यन कर रहे थे, इसी बीच उन्हें कुछ परिणाम मिले, जिनके आधार पर डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक का उद्भव हुआ। यह एक तरह का संयोग ही था और उस समय यह खोज किसी सनसनी से कम नहीं थी। 20वीं सदी की शुरुआत तक अपराधी उँगलियों के निशानों के ज़रिये पकड़े जाने और अपराध के कारण सजा भुगतने के बारे में जान चुके थे। इससे पहले कई अपराधी अपनी उँगलियों के निशानों के अपराध के स्थान पर छूट जाने के कारण पकड़े गये थे और सजा पा चुके थे। इसीलिये नये अपराधियों ने ऊँगलियों के निशान अपराध के स्थान पर छोड़ने से बचने की तरकीब खोजनी शुरु की। कुछ अपराधियों ने हाथों में ग्लॉव्स पहनकर इससे बड़ी आसानी से छुटकारा भी पा लिया। अब ऊँगलियों के निशानों से अपराधियों को कॊई डर नहीं था।


 इस तरह, वैज्ञानिकों ने अपराधियों को पहचानने, पकड़ने की नयी तरकीब खोजनी शुरु की। चूँकि, कत्ल, जैसे अपराधों में सामान्यतः खून बहुत बिखरा पड़ा मिलता था, और उँगलियों के निशान जलकर, कटकर, ग्लॉव्स पहनकर या किसी अन्य कारण से खत्म किये या छुपाये जा सकते थे। ऐसे में खून एक महत्वपूर्ण पदार्थ था, जिसका कि व्यक्ति की पहचान में उपयोग किया जा सकता था। लेकिन, सन 1901  तक मानव शरीर के बारे में हमारी समझदारी इतनी स्पष्ट नहीं हो पायी थी कि हम रक़्त‍ को मानव पहचान का सक्षम साधन मान सकें। असल में 1901ईo  तक वैज्ञानिकों के बीच यह मत था कि हर मानव का रक्त एक दूसरे के एकदम समान होता है। यह एक ऐसा विश्वास था जिसके कारण डॉक्टर्स किसी भी मरीज़ के शरीर में ज़रूरत पड़ने पर किसी का भी रक्त डाल देते थे, और यह रक्त आपस में कई बार अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेता था। 19वीं शताब्दी में इस तरह अनगिनत मरीज़ मारे गये। जिन्हें सिर्फ़ इसलिये नहीं बचाया जा सका, क्योंकि हम रक्त समूहों के बारे में नहीं जानते थे और यह भी नहीं जानते थे कि कुछ रक्त समूह आपस में एक दूसरे से अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेते हैं। 


वस्तुतः, मानव रक्त चार प्रकार का होता है A, B, AB, और O| इन चार समूहों के बारे में सबसे पहले 1901 में वैज्ञानिक “कार्ल लैण्डस्टेनर” ने बताया और इनके सम्बन्ध में प्रयोगों का प्रदर्शन किया। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, मगर इसका भी मानव की पहचान सुनिश्चित करने से कॊई ख़ास लेना देना नहीं था। यह पूर्णतः जैविकी से सम्बन्धित खोज थी, इस खोज के कारण हर रोज हो रहीं तमाम मौतों से लोगों को बचा लिया गया। डॉक्टरों ने बिना रक्त समूह की जाँच किये रक्त को मरीज़ के शरीर में डालना बन्द कर दिया। लेकिन, ये रक्त समूह सिर्फ़ चार प्रकार के थे और औसत रूप से एक चौथाई जनसंख्या का रक्त समूह समान था, इस तरह किसी आपराधिक घटना में यदि १० लोगों को गिरफ़्तार किया जाये तो दस में से पाँच के रक्त समूह समान होने की बहुत अधिक सम्भावना है। यह बात ज़रुर है कि यदि घटना स्थल पर मिले रक्त का रक्त समूह अभियुक्त के रक्त समूह से नहीं मिलता तो घटना में उस व्यक्ति के शामिल होने की सम्भावना खत्म हो जाती है। अतः रक्त समूह के आधार पर किसी व्यक्ति की त्रुटिरहित पहचान करने के लिये न सिर्फ़ अपर्याप्त था, बल्कि स्वपन लोक की कल्पना की तरह था।
घटना स्थल से मिले अवशेषों में रक्त ही एक ऐसा जैव-शारीरिक पदार्थ था जिससे मानव पहचान के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों को सबसे ज़्यादा आशायें थीं, साथ ही वैज्ञानिकों की नज़र में मानव चिकित्सा की नज़र से भी रक्त एक महत्वपूर्ण पदार्थ है। इस कारण से वैज्ञानिक चिकित्सा और जीव शरीर विज्ञान की नज़र से रक्त की विशेषताऒं का विश्लेशण कर रहे थे। इसी के साथ-साथ फोरेंसिक क्षेत्र के वैज्ञानिक भी अपने लिये शोध कर रहे थे। समय के साथ वैज्ञानिकों ने रक्त की अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं को खोजा। जिनमें से 1937 में हुय़ी एक महत्वपूर्ण खोज थी रक्त के Rh गुणाँक (factor) की खोज। मानव रक्त में ऐसे 100 गुणाँक होते हैं, जिनकी सहायता से रक्त के आधार पर व्यक्ति की बहुत त्रुटिहीनाता के साथ सही पहचान हो सकती है। यह खोज भी एक क्राँतिकारी खोज थी, और इस तकनीक की सहायता से 99% से भी अधिक निश्चितता के साथ पहचान साबित की जा सकती थी। फिर भी, जिस स्पष्टता और निश्चितता (यानि 99.999%) की माँग किसी भी देश का न्यायालय करता है, या जीवन मरण के फ़ैसले देने के लिये जिस स्तर की स्पष्टता और सुनिश्चितता होनी चाहिये, वह स्पष्टता और सुनिश्चितता उपरोक्त तकनीक उपलब्ध कराने में अक्षम थी। अतः इस तरह शोध कार्य चलता रहा।
                                                               --Meher Wan

Wednesday, June 1, 2011

सिगमंड फ़्रायड के नाम अल्बर्ट आइंस्टीन का राजनैतिक पत्र

( यह व्यक्तिगत पत्र आइन्स्टीन द्वारा सन १९३१ या १९३२ की शुरुआत में सिगमंड फ़्रायड को लिखा गया था। जो कि “Mein Wettbild, Amsterdam: Quarido Verlag” में सन १९३४ में प्रकाशित हुआ था।)





प्रिय प्रोफ़ेसर फ़्रायड,

        आपमें सत्य को जानने समझने की उत्कंठा, जिस तरह अन्य उत्कंठाऒं पर विजय प्राप्त कर चुकी है, प्रशंसनीय है। आपने अत्यन्त प्रभावी सुबोधगम्यता से दर्शाया है, कि मानव चित्त में प्रेम ऐइर जीवटता के साथ युद्धप्रिय और विनाशकारी मूलप्रवृत्तियाँ कितने अविलग ढंग से बंधी हैं। लेकिन, ठीक उसी क्षण वाद विवाद के अकाट्य तर्कों में मानवता की युद्ध से बाह्य और आन्तरिक मुक्ति के महान लक्ष्य हेतु ह्गहरी अभिलाषा भी प्रकाशमान होती है। इस महान लक्ष्य की घोषणा जीसस क्राइट्स से लेकर गोथे और कान्ट तक, सभी नैतिक और आध्यात्मिक नेताओं के द्वारा किन्हीं अपवादों के बिना तथा देश काल से परे होकर की गयी थी। क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इन लोगों को वैश्विक स्तर पर नेताओं के रूप में स्वीकार किया गया, यद्यपि यह भी कि मानवीय मुद्दों की विषय वस्तु को साँचे में ढालने के उनके प्रयासों में (जनता की) सहभागिता तो हुयी, मगर अत्यंत छोटी सफलता के साथ?
         मैं स्वीकार करता हूँ कि वे महान लोग, जिनकी उपलब्धियाँ कैसे भी किसी क्षेत्र तक प्रतिबन्धित कर दी जातीं हैं, वही उपलब्धियाँ उन्हें अपने आसपास के लोगों से उन्हें ऊँचा उठा देती हैं, समान आदर्श के अपरिहार्य विस्तार का सहभागी भी बनाती हैं। परन्तु, उनका प्रभाव राजनीतिक घटनाओं की विषयवस्तु पर कम है। यह करीब करीब ऐसे प्रतीत होता है, जैसे उसी क्षेत्र को हिंसा और राजनीतिक सत्ताधारियों की गैरज़िम्मेदारियों पर अपरिहार्य रूप से छोड़ दिया गया हो, जिस कार्यक्षेत्र पर राष्ट्रों की तकदीर निर्भर करती है।
          राजनीतिक नेताओं सरकारों की वर्तमान स्थिति कुछ बल और कुछ चर्चित चुनावों के कारण है। वे अपने अपने राष्ट्रों में नैतिक और बौद्धिक रूप से, जनता के सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि नहीं ठहराये जा सकते। बुद्धिजीवी संभ्रांतों का इस वक्त देशों के इतिहास पर कोई सीधा प्रभाव नहीं है: उनकी सम्बद्धता में कमी उन्हें समकालीन समस्याओं के निराकरण में सीधे प्रतिभागिता करने से रोकती है। क्या आप नहीं सोचते? कि जिनके क्रियाकलाप और पूर्ववर्ती उपलब्धियाँ; उनकी योग्यता और लक्ष्य की पवित्रता की गारन्टी का निर्माण करतीं हैं, उन लोगों के मुक्त संगठन के द्वारा इस दिशा में परिवर्तन किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति के इस गठबंधन के सदस्यों को आवश्यक रूप से शक्ति और विचारों आदान-प्रदान, पत्रकारों के समक्ष अपना दृष्टिकॊंण प्रेषित करके आपस में संपर्क में रहना होगा। किसी खास अवसर पर ज़िम्मेदारी सदैव हस्ताक्षरकर्त्ताऒं पर रही है-और यह राजनीतिक प्रश्नों के निराकरण हेतु सामान्य से काफ़ी अधिक और सलाम लरने योग्य नैतिक प्रभाव छोड़ती है। निश्चित रूप से ऐसे संगठन, उन सभी बुराइयों जो कि अक्सर ज्ञानवान समाजों को विखन्डन के रास्ते पर ले जातीं हैं, और खतरों जो कि अविलग रूप से मानव मनोवृत्तियों की कमियों से जुड़े होते हैं, के लिये शिकारी की तरह होंगे। इस तरह के प्रयासों  को मैं अनिवार्य कर्तब्य से कमतर नहीं देखता हूँ।
      यदि ऐसी समझ वाले वैश्विक  संगठन का निर्माण हो पाता है, जिसका कि मैंने पूर्व में वर्णन किया; यह युद्ध के विरुद्ध संघर्ष हेतु आध्यात्मिक संस्थाओं को संगठित कर्ने का सत प्रयत्न भी कर सकता है। य उन तमाम लोगों के लिये अनुग्रह होगा, जिनके उत्कृष्ट ध्येय, निराशाजनक निष्कासन के कारण विकलाँग हो चुके हैं। अंततः, मुझे विश्वास है, यदि अपनी अपनी दिशाओं के अत्यन्त आदरणीय लोगों का संगठन बन पाया, जैसे कि मैंने वर्णित किया, तो राष्ट्र संघ के उन तमाम देशों को जो कि वास्तव में एक महान लक्ष्य की दिशा में कार्यरत हैं और जिस ध्येय के लिये संघ का अस्तित्व है, को महत्वपूर्ण नैतिक (आधार) सहयोग प्रदान करने हेतु अत्यन्त उपयुक्त सिद्ध हो सकता है।
      मैंने यह प्रस्ताव विश्व के किसी अन्य के अलावा आपके समक्ष इसलिये रखा, क्योंकि आप अन्य सभी लोगों में सबसे कम, अपनी इच्छाओं के द्वारा ठगे जाते हैं, क्योंकि आपके आलोचनात्मक निर्णय, ज़िम्मेदारी के सबसे गहरे एहसास पर आधारित होते हैं।

                                                                      आपका
 
                                                                 (अल्बर्ट आइन्स्टीन)


अनुवाद: मेहेर वान