Friday, October 28, 2011

जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के साथ छेड़छाड़

--मेहेर वान


 
कुछ दिनों पहले अमेरिका में वैज्ञानिकों, अवकाश प्राप्त सरकारी अफ़सरों और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के एक पैनल ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सरकारों से कुछ ठोस कदम उठाने की सिफ़ारिश की। इस पैनल का मानना है कि पर्यावरण सुधार के लिये अब कुछ क्रांतिकारी तरीकों का इस्तेमाल होना चाहिये। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और यह बात तय हो चुकी है कि इसकी प्रमुख ज़िम्मेदार कार्बन डाई ऑक्साइड गैस है। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस सूरज से आ रही गरमी को अपने अंदर सोख लेती है। पृथ्वी पर इस गैस की मात्रा वनॊं के जलने, बड़ी मात्रा में यातायात और जनसंख्या बढ़ने से लगातार बढ़ रही है। इस कारण पृथ्वी के वातावरण में गरमी सोखने की क्षमता भी लगातार बढ़ रही है। यही कारण है कि धरती गर्म हो रही है और वैश्विक तापन की विभीषिका से विश्व जूझ रहा है।
अमेरिका में वाशिंगटन स्थित ’बाईपार्टीसन शोध केन्द्र’ के इस दल ने सरकारों को सुझाव दिया है कि  वे अपने अपने देशों में पर्यावरण सुधार के लिये अतिवादी इंजीनियरिंग और तकनीक के विकास और क्रियान्वयन के लिये वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करें। एक समय तक ऐसा कहा जाता था कि अंतरिक्ष में सूरज से आ रही गर्मी को वापस अंतरिक्ष में भेजने के लिये बड़े-बड़े परावर्तक शीशे लगाने और वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड को पृथक करके कहीं इकट्ठा करके ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने और पृथ्वी को ठंडा करने की नौबत कभी नहीं आयेगी। न ही कभी धरती को हमारे रहने लायक बनाये रखने के लिये, धरती की सतह पर सूक्ष्म कणों को तितर-बितर करने और भूगर्भ-अभियान्त्रिकी जैसी कठिन और अत्याधिक मंहगी तकनीकों का सहारा करना पड़ेगा। लेकिन वैज्ञानिकों, अफ़सरों और राजनयिकों के 18 सदस्यों वाले दल के अनुसार अब इन अतिवादी तकनीकों का उपयोग शुरु कर देना चाहिये।
समूचे पृथ्वी ग्रह को अतिवादी कृत्रिम ढ़ंगों से अपने अनुसार बदलने को कुछ लोग अचम्भित कर देने वाला मानते हैं। इसी दल के एक सदस्य, हार्वर्ड और कैलगैरी विश्वविद्यालय के डेविड कीथ भी इसे अचम्भित करने वाला निर्णय मानते हैं। लारेन्स लिवरमोर नेशनल लैब की उपनिदेशक और इस दल की उप-प्रमुख  जेन लोंग इसे सामान्य मानतीं हैं वह कहती हैं कि मानव ने तेजी से बड़ी मात्रा में वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस उत्सर्जित करके धरती से पहले ही खतरनाक छेड़छाड़ की है। उनके अनुसार अब हम इसे नज़रअंदाज़ करते हुये आगे नहीं बढ़ सकते। यह बात और है कि इस तरह की कृत्रिम छेड़्छाड़ हम अचानक कर रहे हैं और पृथ्वी इस छेड़छाड़ से परिचित नहीं है। वहीं, कुछ पर्यावरणविद इस तरह के निर्णयों को भ्रमित और खतरनाक मानते हैं।
पर्यावरण तापन से निबटने के लिये प्रयोग में लायी जाने वाली तथाकथित अतिवादी तकनीकों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहली तकनीक के अंतर्गत पृथ्वी पर अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैस -कार्बन डाई ऑक्साइड को वातावरण से अलग करके बड़े बड़े पाइपों द्वारा भूगर्भ में इकट्ठा कर दिया जाये। इस तरह का भंडारण धरती के उन हिस्सों में किया जाता है जहाँ भूगर्भ में “बासाल्ट” नामक पदार्थ की चट्टानें होती हैं। ये चट्टानें कार्बन युक्त गैस से रासायनिक क्रिया करके चूना पत्थर में बदल जाती हैं। यह प्रक्रिया प्राकृतिक प्रकिया से एकदम मिलती जुलती है। अतः इस प्रयोग से भविष्य में बहुत बड़ी हानि या खतरे महसूस नहीं होते। यह कहना है स्टेन्फ़ोर्ड विश्वविद्यालय की पर्यावरणविद ’डॉ. केन काल्डेरिया’ का। आइसलैंड के ज्वालामुखी प्रभावित इलाके में वैज्ञानिकों की अंतर्राष्ट्रीय टीम इस तरह के कुछ प्रयोग ’कार्बफ़िक्स’ नाम से शुरु करने वाली है। जिसके तहत ज्वालामुखी के विस्फ़ोट से निकलने वाली गैसों से कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को अलग करके लम्बे पाइपों द्वारा भूगर्भ में उस स्थान पर भंडारित कर दिया जायेगा, जहाँ भूगर्भ में बासाल्ट पत्थर की चट्टानें हैं। ये बासाल्ट की चट्टानें गैस के कार्बन से रासायनिक अभिक्रिया करके चूना पत्थर बना देंगीं जो कि भविष्य में पूर्णतः हानिरहित होगा। इस तरह कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर लाने की योजना है।  
पर्यावरण सुधार से जुड़ी प्रस्तावित अतिवादी तकनीकों में से दूसरे प्रकार की तकनीकें विवादों के घेरे में हैं। इन तकनीकों में से एक तकनीक है, पृथ्वी के वातावरण के ऊपरी हिस्से में बड़े-बड़े परावर्तक शीशे लगाना। जिससे सूरज से आ रहा प्रकाश और गरमी इन विशालकाय शीशों से परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में चली जाये। इसके साथ ही यह भी प्रस्ताव रखा गया है कि वातावरण में ऐसे सूक्ष्म कण कृत्रिम रूप से बिखेर दिये जायें जो कि प्रकाश के साथ आ रही गरमी को परावर्तित करें। इन्हीं तकनीकों में से एक है, कृत्रिम विधि से समुद्र में वाष्पन करके अधिक मात्रा में बादलों का निर्माण करना ताकि पृथ्वी को इन बादलों से ढ़ंका जा सके। इससे धरती ठंडी रहेगी और इसे वैश्विक तापन से बचाया जा सकेगा। मगर दूसरे प्रकार की ये सभी तकनीकें पृथ्वी की प्राकृतिक प्रकियाओं पर गम्भीर असर डाल सकतीं हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इन अतिवादी कृत्रिम तकनीकों के प्रयोग से घरती के आंतरिक तंत्र में गड़बड़ी आ सकती है क्योंकि ज़रूरी नहीं है कि धरती इस तरह के बदलावों के लिये तैयार हो। अमेरिकी विकास केंद्र के ’जोइ रोम’ का मानना भी यही है। उनके अनुसार वैज्ञानिकों, अफ़सरों और राजनेताओं के इस पैनल को इस तरह की अतिवादी कृत्रिम तकनीकॊं के तत्कालीन उपयोग के मशविरों को तुरन्त वापस ले लेना चाहिये। धरती के साथ इस तरह के प्रयोग अभी बहुत ही खतरनाक साबित हो सकते हैं क्योंकि इन प्रयोगों के परिणामों के बारे में अभी कोई भी कुछ नहीं जानता। वैज्ञानिक इन तकनीकों के विस्तृत परिणाम खोजने के के बाद ही इनका उपयोग बड़े पैमाने पर करने के पक्ष में हैं, ताकि कोई बड़ी समस्या का सामना न करना पड़े।

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