Thursday, October 20, 2011

ग्लोबल वॉर्मिंग समस्या के निदान के लिये महत्वाकाँक्षी प्रयोग

                                                                                               --मेहेर वान



      पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या ने विश्व स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है। जहाँ देशों की सरकारें और आम जनता भी अब ग्लोबल वॉर्मिंग के विषय के बारे में चिंतित नज़र आती हैं, वहीं विश्व भर के पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भी जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों पर विशेष रूप से शोध कार्य शुरु कर दिया है। जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिये ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करनी बहुत ही आवश्यक है। वर्तमान परिस्थितियों में यह कार्य में बहुत ही कठिन है। ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन का सीधा सम्बन्ध उद्योग जगत से है। फ़्रिज़ और एयर कंडीशनर एक तबके के जीवन की महत्वपूर्ण ज़रूरतें बन चुके हैं। तमाम उद्योगों और आम जीवन के कई उपकरणों का उपयोग अब हम बन्द नहीं कर सकते। यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित देश विकासशील देशों पर कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने का दबाव बनाते रहते हैं। यह अलग बात है कि अब भी विकसित देशों की तुलना में विकासशील देश बहुत कम कार्बन उत्सर्जन करते हैं। इस दबाव के पीछे विकसित देश अक्सर यह दलील भी देते हैं कि विकसित देशों में जीवन स्तर इतना ऊँचा हो चुका है कि उनका कार्बन उत्सर्जन कम नहीं किया जा सकता। साथ ही विकसित देश जीवन स्तर भी कम नहीं करना चाहते। इस कारण कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बहुत कम करके जलवायु परिवर्तन रोकने का सपना निकट भविष्य में पूरा नहीं हो सकता। अतः इन परिस्थितियों में ग्लोबल वार्मिंग पर पूरा नियंत्रण हो पाना भी असंभव सा है।
       अमेरिका की सहायता से आइसलैंड के वैज्ञानिकों का एक दल इस विडम्बना से निबटने की तैयारी में है। यह दल आइसलैंड में ही उन स्थानों पर कुछ परीक्षण कर रहा है, जहाँ पिछले साल फ़ूटे ज्वालामुखियों से निकली राख और हानिकारक गैसों की मात्रा बहुत अधिक है। आइसलैंड की राजधानी के पास में ही स्थित रेकजाविक भूतापीय ऊर्जा केन्द्र के आसपास यह प्रयोग किया जायेगा। इस प्रयोग में लगभग 11 मिलियन डॉलर का खर्च आने की सम्भावना है। यहाँ यह भी बताते चलें कि आइसलैंड देश में भूतापीय रियक्टर्स ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोतों में से एक हैं। इस तरह से उत्पन्न हुयी ऊर्जा से कार्बन उत्सर्जन बहुत कम मात्रा में होता है। इस नवीनतम प्रयोग के बाद आइसलैंड कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने की दिशा में सशक्त कदम उठाने वाला प्रमुख देश बन जायेगा। इस प्रयोग को ”कार्बफ़िक्स” नाम दिया गया है।
इस प्रयोग कॊ वातावरण में कार्बन की मात्रा को नियंत्रित करने की दिशा में क्राँतिकारी प्रयास माना जा रहा है। 
      इस प्रयोग के तहत वैज्ञानिक वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड जैसी महत्वपूर्ण ग्रीन हाउस गैस को वातावरण की तमाम गैसों से अलग करके कुछ लम्बे पाइपों की सहायता से भूगर्भ में हमेशा के लिये भंडारित कर देंगे। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भाग वातावरण की तमाम गैसों के मिश्रण से कार्बन डाई ऑक्साएड को अलग करना है, जिसके लिये वैज्ञानिक अत्यन्त आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करेंगे। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस ग्लोबल वॉर्मिंग में सबसे खतरनाक गैस मानी जाती है, इसीलिये इसपर नियंत्रण पाने की दिशा में लगतार कदम उठाये जाते हैं। पृथक की गयी कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को लम्बे पाइपों के जरिये भूगर्भ में सोलह हज़ार फ़ीट नीचे ज़मीन के अन्दर पानी में मिलाकर इतनी ही गहराई में फ़ैलीं बासाल्ट की चट्टाअनों पर बिखेर दिया जायेगा।  कार्बन डाई ऑक्साइड और पानी मिलकर एक प्रकार ले अम्ल का निर्माण करते हैं जो को बासाल्ट पत्थर से रासायनिक अभिक्रिया करके चूना पत्थर बना देता है। खास बात यह है कि यह चूना पत्थर हानि रहित होता है और इसकी निर्माण प्रक्रिया पूर्णतः प्राकृतिक होती है। इस प्रयोग से धरती को कोई खतरा नहीं होना चाहिये, ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है।
        हाँलाकि, इस क्राँतिकारी प्रयोग के परिणाम आने में अभी वक़्त लग जायेगा। मगर इस प्रयोग से जुडे वैज्ञानिकों का मानना है कि यह प्रयोग भविष्य में बहुत ही आसानी से और बहुत ही कम समय में पृथ्वी पर कार्बन की मात्रा को नियंत्रित कर देगा। अगले छः से बारह महीनों में लगभग दो हज़ार टन कार्बन डाई ऑक्साइड धरती के अन्दर भंडारित करके बासाल्ट से चूना पत्थर बनाने की योजना है। यह मात्रा कार्बन डाई ऑक्साइड की बहुत बड़ी मात्रा है, जो कि आइसलैंड के वातावरण में बहुत स्पष्ट परिवर्तन लायेगी। इस महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सिगुर्दर गिस्लसन का कहना है कि यह यह प्रयोग छः से बारह महीनों तक चलेगा और इसके बाद ही हम इस प्रयोग के निष्कर्षों के बारे में कुछ कह पायेंगे। लेकिन यह हमारे लिये बहुत ही महत्वाकाँक्षी प्रोजेक्ट है और इसके ज़रिये हम युवा वैज्ञानिकों को अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल विश्व की चुनौतियों से निबटने के लिये करने का मौका देंगे।
      इस प्रयोग के बारे में कोलंबिया विश्वविद्यालय के डॉ. वैलेस ब्रोकर का कहना है, “हम चाहे पचास साल बाद कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का भण्डारण करें, लेकिन हमें करना यही पड़ेगा। क्योंकि वर्तमान परिस्थियों में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करना बहुत ही असंभव कार्य है”। इसी प्रोजेक्ट से सम्बन्धित द्ल के एक और सदस्य डॉ. बर्गर सिग्फ़ुसन कहते हैं कि यह पता करने में काफ़ी वक़्त लग जायेगा कि बासाल्ट की चट्टानों के ऊपर पानी और गैस का मिश्रण किस तरह फैला है, और यह किस हद तक रासायनिक अभिक्रिया करता है, मगर यह प्रक्रिया प्राकृतिक है, जिसके कोई नुकसान नज़र नहीं आते।
      इसके अलावा कुछ वैज्ञानिक इस तरह के प्रयोगों को अतिवादी प्रयोगों की संज्ञा देते हैं। इनका मानना है कि इस तरह के प्रयोग भले ही निकट भविष्य में हानि रहित प्रतीत होते हों परन्तु धरती इस तरह के भण्डारण और अचानक बदलावों के प्रति सावधान नहीं हैं। इस तरह के प्रयोगों का सबसे बड़ा खतरा यही है कि इन प्रयोगों के सम्भावित परिणामों के बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। इन प्रश्नों के जबाब में कार्बफ़िक्स प्रयोग के एक वैज्ञानिक का कहना है कि कार्बन डाई आक्साइड गैस का पृथ्वी के अन्दर भण्डारण नया नहीं है, नॉर्वे की प्राकृतिक गैस की खदानों से उत्सर्जित कार्बन डाई ऑक्साइड पहले से ही उत्तरी सागर के पास कई सालों से भण्डारित की जा रही है।

        

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