-मेहेर बान
बचपन में जीव विज्ञान की किताबों में जब कोशिकीय अंगों के बारे
में शिक्षक पढ़ाया करते थे, तो तमाम आविष्कारकों की सूची में सिर्फ़ एक ही नाम होता था
जो कुछ अपना सा लगता था। परीक्षा में लिखने के लिये, इस नाम को कभी रटने की ज़रूरत नहीं
पड़ी। हम तो बस इतने में ही खुश रहा करते थे कि विज्ञान के अटपटे नामों के अथाह समन्दर
में से एक नाम अपना सा है, और वो नाम एक बहुत बड़े वैज्ञानिक का है। उस समय अध्यापक
ने बताया था कि गिने-चुने भारतीय वैज्ञानिकों में से एक हर गोविन्द खुराना भी हैं जिन्हें
नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ है। तब हमें यह अन्दाज़ा भी नहीं था कि नोबेल पुरस्कार कितना
बड़ा होता है, हमारे लिये तो यही बहुत आश्चर्य कई बात थी कि जो कोशिका हमें दिखाई तक
नहीं देती, उसके अंगों के काम करने की प्रक्रिया के बारे में इतना कुछ ये वैज्ञानिक
कैसे जान लेते थे। बहुत बाद में विज्ञान की पढ़ाई करने पर तमाम संशयों के धुन्ध में
कुछ सत्य दिखाई देने लगे, तो हर गोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिकों का महत्व बेहतर समझ
आने लगा। प्रो.हर गोविन्द खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवाँशिक सूचनाऒं के प्रोटीन
में पहुँचने की प्रक्रिया को पहली बार समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिये जीवित कोशिकाओं
में अन्य प्रक्रियायें सुचारु रुप से सम्पन्न होती हैं। इस कार्य के लिये उन्हें शरीर
क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ नोबेल पुरस्कार प्रदान किया
गया था। विज्ञान के क्षेत्र में वे प्रो.सी.वी.रमन और प्रो.चन्द्रशेखर के बाद भारतीय
मूल के तीसरे वैज्ञानिक थे, जिन्हें अपने आविष्कारों के लिये नोबेल पुरस्कार से सम्मानित
किया गया था।
प्रो. हर गोविंद खुराना का सफ़र अविभाजित भारत के पंजाब (जो कि
अब पाकिस्तान में है) के एक छोटे से गाँव रायपुर से शुरु हुआ और दुनियाँ के सर्वश्रेष्ठ
वैज्ञानिक संस्थानों में से एक मेसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेकनोलॉजी, अमेरिका तक
पहुँचा। हर गोविन्द खुराना की वास्तविक जन्मतिथि मालूम नहीं है, स्कूल में नाम दर्ज़
कराते समय 9 जनवरी 1922 की तिथि उनके जन्मदिन के रुप में लिख दी गयी थी। वो चार भाइयों
और एक बहन में सबसे छोटे थे। बताते हैं कि उस समय इस गॉव में सिर्फ़ डॉ.हर गोविन्द का
परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज़
से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, उन्होनें पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी.
और एम.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की। बाद में अपने संस्मरणों में, वे अपने प्रारम्भिक
शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को अक्सर अपने शैक्षिक जीवन के प्रकाश स्त्रोतों
की तरह याद करते। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढाई करने के लिये सरकारी वज़ीफ़ा प्राप्त
हो गया। डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के लिये वे इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय
चले गये। वहाँ उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक
रोज़र एस.बीर के निर्देशन में शोध कार्य शुरु किया। 1948-1949 में पोस्ट-डॉक्टोरल के
लिये वे स्विट्ज़रलैंड आ गये जहाँ उन्होंने प्रोफ़ेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया,
यही वो जगह थी जहाँ उन्होंने विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला, जिसने उन्हें पूरा
जीवन बिना थके हुये लगातार विज्ञान की सेवा की।
सन 1949 में कुछ समय के लिये वे भारत
आये और 1950 में वे फिर सरकारी वज़ीफ़ा मिलने पर वापस इंग्लैंड चले गये, जहाँ उन्होंने
कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय में प्रो. ए.आर. टॉड के साथ काम किया, यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लियिक
अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुयी। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ़ ब्रिटिश कोलम्बिया,
कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आये। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड
के समय की दोस्त ’एस्थर सिब्लर’ से शादी की। तत्पश्चात 1960 में वे आगे के शोध कार्य
के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका चले आये। यहीं इंस्टीच्यूट ऑफ़ एन्जाइम्स
रिसर्च में किये गये शोध कार्य के लिये उन्हें बाद में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित
किया गया। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली और 1968 में उन्हें शरीर
क्रिया विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। प्रॊ. खुराना का शोधकार्य कभी
बाधित नहीं हुआ, वे 1970 में मेसाच्युसेट्स इंस्टीच्य़ूट ऑफ़ टेकनोलॉजी में सम्मानित
’अल्फ़्रेड स्लोन प्रोफ़ेसर ऑफ़ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी’ नियुक्त किये गये। यहाँ पर शोध
कार्य करते हुये प्रो. खुराना ने आनुवाँशिकी से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों
में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गये। वर्तमान में वे एम.आई.टी में एमेरिटस
प्रोफ़ेसर थे। 10 नवंबर 2011 को मेसाच्युसेट्स इंन्स्टीच्यूट ऑफ़ टेकनोलॉजी ने अपनी वेबसाइट
पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रो. हर
गोविन्द खुराना 9 नवंबर 2011, को हमें हमेशा के लिये छोड़कर चले गये। वे 89 वर्ष के
थे और अंतिम समय तक छात्रों शोधकर्त्ताओं से लगातार मिलते रहे और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया
से लगातार जुड़े रहे।
प्रो. हर गोविन्द खुराना
का सफ़र शून्य से शिखर तक का सफ़र कहा जा सकता है। ग़रीब परिवार में जन्मे हर गोविन्द
ने अपने जिज्ञासु दिमाग की भूख मिटाने के लिये आजीवन संघर्ष किया और इसी संघर्ष से
जीवन और जीवन के सूक्षतम नींव के पत्थर कोशिका और उसके अंगों और उपअंगों की क्रियाविधि
के बारे में वैश्विक वैज्ञानिक परिवार और मानव की समझदारी विकसित हुई। 1953 में वॉटसन
और क्रिक ने डी.एन.ए. के दोहरी कुंडली जैसी संरचना के बारे में खोज की थी जिसके लिये
वाटसन और क्रिक को भी नोबेल पुरस्कार मिला, लेकिन वे डी.एन.ए. से प्रोटीन की निर्माण
प्रक्रिया और अन्य आनुवाँशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे
में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स
से बनी संरचना अमीनॊ अम्लों का निर्माण करते हैं जो कि प्रोटीन का एक हिस्सा हैं। रसायनिक अभिक्रिया के
ज़रिये प्रो.खुराना ने आर.एन.ए. में आनुवाँशिक कोडों की संरचना को स्पष्ट किया। नोबेल
पुरस्कार प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने शोध कार्य सतत जारी रखा।
नोबेल मिलने के
चार साल बाद उन्हें पूर्णतः कृत्रिम जीन का रसायनिक विधियों द्वारा निर्माण करने में
सफ़लता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीनों का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया
जिनमें से दृष्टिदॊष से सम्बन्धित जीन रोडोस्पिन का कृत्रिम निर्माण प्रमुख था। इन
खोजों का मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। आनुवांशिकी में प्रो.खुराना
की खोजें आज भी महत्वपूर्ण हैं, इनका इस्तेमाल मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र
में लगातार हो रहा है। प्रो. खुराना एक सफ़ल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे
रहते। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को भी 1993
में डी.एन.ए. में फ़ेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिये नोबेल पुरस्कार मिला है।
विज्ञान और तकनीक के भविष्य और अनुप्रयोगों के सम्बन्ध में हमेशा गम्भीर रहते थे। उनके
छात्र उन्हें एक उत्कृष्ट शिक्षक और हमेशा बेहतर शोध करने के लिये उत्साहवर्धन करने
वाले अच्छे इंसान के रुप में याद करते है। समकालीन जनमत सरल व्यक्तित्व वाले महान वैज्ञानिक
को श्रद्धाँजलि देते हुये, विज्ञान और तकनीक का आमजन के हित में इस्तेमाल के प्रो.खुराना
के सपनों को याद करता है।
समय के इस मोड़ पर प्रो. हरगोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिक को सिर्फ़
श्रद्धाँजलि देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। इस पड़ाव पर थोड़ा ठहरकर यह भी सोचने की
ज़रूरत है कि आज से 66 वर्ष पहले वे 1945 में आगे की पढाई के लिये इंग्लैण्ड गये थे,
उस समय भारत में न तो बहुत अच्छे वैज्ञानिक शोध संस्थान थे न ही विभिन्न क्षेत्रों
के सर्वोत्कृट वैज्ञानिक। ऐसी परिस्थितिओं में देश से अनगिनत मेधावी देश छोड़कर पढ़ाई
करने विदेश गये और देश में संसाधनों के अभाव के कारण पुनः देश नहीं आये। देश की आज़ादी
के छः दशकों के लम्बे समय के बाद आज ये विचारणीय प्रश्न है कि क्या आज भी हम पुरानी
परिस्थितियाँ बदल पाये हैं? या आज भी हम देश में एक ऐसे संस्थान् की कल्पना मात्र कर
रहे हैं जिसमें विश्व स्तर पर प्रभावित करने वाला शोध कार्य हो जिससे नोबेल जैसे पुरस्कार
भी अपना गौरव बढ़ा सकें। आज़ादी के बाद, विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में से किसी एक में
भी हम नोबेल पुरस्कार पाने में असफ़ल हुये हैं। ऐसे कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारे
देश की प्रतिभायें आज भी इन लक्ष्यों को दूर से देख पाने मात्र को मजबूर हैं।
प्रो. हर गोविन्द खुराना को श्रद्धाँजलि देने के साथ इस पर भी
वैश्विक स्तर पर विचार होना आवश्यक है कि आज जब दुनियाँ के लगभग सभी देश विज्ञान और
तकनीक के हर एक खोज और परिणाम में सैनिक उपकरण
और युद्ध में उपयोग की सम्भावनायें देख रहे हैं, ऐसी परिस्थितियों में अमेरिका में
रहते हुये भी जहाँ की अर्थव्यवस्था ही युद्धक उपकरण बनाने के व्यापर से संचालित होती
है, प्रो. हर गोविन्द खुराना ने अपनी आनुवाँशिकता और जैविक क्षेत्र की खोजों को सैनिक
और रक्षा क्षेत्रों में उपयोग होने से बचाये रखा। वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय के लिये
यह एक चुनौती है जिसका सामना उन्हें स्वयं को वैज्ञानिक चुनौतियों से निबटने के साथ-साथ
समानान्तर करने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा।
प्रो. हर गोविन्द खुराना के गुज़र जाने की खबर भारतीय मीडिया में
तीन दिन बाद आयी। वह मीडिया जो स्वय़ं को सबसे तेज़ और समय से आगे का मीडिया कहा करता
है, इस मीडिया को इस महान वैज्ञानिक के छोड़कर चले जाने की खबर से कॊई वास्ता नहीं दिखा।
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि तमाम दोयम दर्ज़े
के मुद्दों की खबरों और बहसों से भारतीय मीडिया को फ़ुरसत नहीं थी।
सच्चे अर्थों में इस महान वैज्ञानिक को श्रद्धाँजलि देना इसी तरह
से संभव होगा जब हम उसके सपनॊं को पूरा करने के लिये स्वयं को तैयार कर पायेंगे। प्रो.
हरगोविन्द खुराना अपनी महान खोजों के जरिये हमारे दिमागों में हमेशा रहेंगे।
विनम्र श्रद्धांजलि..... ऐसे लोगों ही इस देश का गौरव बढाया है ...... नमन
ReplyDeleteधन्यवाद....डॉ. मोनिका जी. ब्लॉग पर आती रहिये...:)
ReplyDelete