2०वीं और २१वीं सदी में समय बहुत तेज़ी से बदला और समय के साथ मानव की पहचान सुनिश्चित करने के मानक भी बदलने पड़े। एक समय फोटो पहचान पत्र ने ऑफ़िसों, खुफ़िया संस्थानों और रक्षा-अनुसंधान से जुड़े संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों की पहचान सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया था, लेकिन डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी के अस्तित्व में आने के बाद फोटो से छेड़-छाड़ इतनी आसान हो गई कि फोटो पहचान पत्रों की विश्वस्यनीयता खतरे में पड़ गई। इसके बाद सर विलियम हर्शेल ने, जो कि 19वीं सदी के ब्रितानी प्रशासक थे, उँगलियों के निशानों को मानव पहचान का आधार साबित किया। इस तरह बींसवीं सदी के अन्त तक उंगलियों के निशान रोज़मर्रा के कार्यों में सामान्य जनता की पहचान सुनिश्चित करने का साधन बने रहे, मगर ज्ञान के विस्तार से कुछ लोगों ने इस तकनीक के दुरुपयोंगों को भी ढ़ूंढा। तब पहचान का नया आधार तलाशा जाने लगा। तत्पश्चात, आँख की पुतली का फोटोग्राफ़ पहचान का आधार उभरकर सामने आया। इसी बीच फ़ोरेंसिक, आपराधिक या अन्य पहचान सम्बन्धी मामलों में डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग का भी उद्भव हुआ। डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग के आविष्कार के पीछे मूल रूप से आपराधिक और फ़ोरेंसिक मामलों की जटिलता थी, जिसे कि वैज्ञानिक सुलझाना चाह्ते थे, मगर अब कुछ लोग इसे सामान्य जन के लिये भी पहचान का एक सशक्त आधार मान रहे हैं। समय के साथ इस तकनीक ने भी विस्तार पाया, इस तकनीक को आसान बनाने के प्रयास हुये, जिनमें से कई प्रयास बड़े स्तर पर सफ़ल भी हुये, इन प्रयासों के कारण यह तकनीक आज भारत समेत विश्व के तमाम न्यायालयों में पहचान सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण साधन मानी जाती है।
डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक के पीछे जैव-तकनीकी के विकास की लम्बी कहानी है। असल में इस तकनीक की खोज से पहले, मानव या जीव की पहचान साबित करने में इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में नहीं सोचा गया था। ऐसा कहना ज़्यादा उचित होगा कि वैज्ञानिक मानव शरीर सम्बन्धी विषयों पर विस्तृत अध्य्यन कर रहे थे, इसी बीच उन्हें कुछ परिणाम मिले, जिनके आधार पर डी.एन.ए. फ़िंगरप्रिंटिंग तकनीक का उद्भव हुआ। यह एक तरह का संयोग ही था और उस समय यह खोज किसी सनसनी से कम नहीं थी। 20वीं सदी की शुरुआत तक अपराधी उँगलियों के निशानों के ज़रिये पकड़े जाने और अपराध के कारण सजा भुगतने के बारे में जान चुके थे। इससे पहले कई अपराधी अपनी उँगलियों के निशानों के अपराध के स्थान पर छूट जाने के कारण पकड़े गये थे और सजा पा चुके थे। इसीलिये नये अपराधियों ने ऊँगलियों के निशान अपराध के स्थान पर छोड़ने से बचने की तरकीब खोजनी शुरु की। कुछ अपराधियों ने हाथों में ग्लॉव्स पहनकर इससे बड़ी आसानी से छुटकारा भी पा लिया। अब ऊँगलियों के निशानों से अपराधियों को कॊई डर नहीं था।
इस तरह, वैज्ञानिकों ने अपराधियों को पहचानने, पकड़ने की नयी तरकीब खोजनी शुरु की। चूँकि, कत्ल, जैसे अपराधों में सामान्यतः खून बहुत बिखरा पड़ा मिलता था, और उँगलियों के निशान जलकर, कटकर, ग्लॉव्स पहनकर या किसी अन्य कारण से खत्म किये या छुपाये जा सकते थे। ऐसे में खून एक महत्वपूर्ण पदार्थ था, जिसका कि व्यक्ति की पहचान में उपयोग किया जा सकता था। लेकिन, सन 1901 तक मानव शरीर के बारे में हमारी समझदारी इतनी स्पष्ट नहीं हो पायी थी कि हम रक़्त को मानव पहचान का सक्षम साधन मान सकें। असल में 1901ईo तक वैज्ञानिकों के बीच यह मत था कि हर मानव का रक्त एक दूसरे के एकदम समान होता है। यह एक ऐसा विश्वास था जिसके कारण डॉक्टर्स किसी भी मरीज़ के शरीर में ज़रूरत पड़ने पर किसी का भी रक्त डाल देते थे, और यह रक्त आपस में कई बार अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेता था। 19वीं शताब्दी में इस तरह अनगिनत मरीज़ मारे गये। जिन्हें सिर्फ़ इसलिये नहीं बचाया जा सका, क्योंकि हम रक्त समूहों के बारे में नहीं जानते थे और यह भी नहीं जानते थे कि कुछ रक्त समूह आपस में एक दूसरे से अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेते हैं।
वस्तुतः, मानव रक्त चार प्रकार का होता है A, B, AB, और O| इन चार समूहों के बारे में सबसे पहले 1901 में वैज्ञानिक “कार्ल लैण्डस्टेनर” ने बताया और इनके सम्बन्ध में प्रयोगों का प्रदर्शन किया। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, मगर इसका भी मानव की पहचान सुनिश्चित करने से कॊई ख़ास लेना देना नहीं था। यह पूर्णतः जैविकी से सम्बन्धित खोज थी, इस खोज के कारण हर रोज हो रहीं तमाम मौतों से लोगों को बचा लिया गया। डॉक्टरों ने बिना रक्त समूह की जाँच किये रक्त को मरीज़ के शरीर में डालना बन्द कर दिया। लेकिन, ये रक्त समूह सिर्फ़ चार प्रकार के थे और औसत रूप से एक चौथाई जनसंख्या का रक्त समूह समान था, इस तरह किसी आपराधिक घटना में यदि १० लोगों को गिरफ़्तार किया जाये तो दस में से पाँच के रक्त समूह समान होने की बहुत अधिक सम्भावना है। यह बात ज़रुर है कि यदि घटना स्थल पर मिले रक्त का रक्त समूह अभियुक्त के रक्त समूह से नहीं मिलता तो घटना में उस व्यक्ति के शामिल होने की सम्भावना खत्म हो जाती है। अतः रक्त समूह के आधार पर किसी व्यक्ति की त्रुटिरहित पहचान करने के लिये न सिर्फ़ अपर्याप्त था, बल्कि स्वपन लोक की कल्पना की तरह था।
इस तरह, वैज्ञानिकों ने अपराधियों को पहचानने, पकड़ने की नयी तरकीब खोजनी शुरु की। चूँकि, कत्ल, जैसे अपराधों में सामान्यतः खून बहुत बिखरा पड़ा मिलता था, और उँगलियों के निशान जलकर, कटकर, ग्लॉव्स पहनकर या किसी अन्य कारण से खत्म किये या छुपाये जा सकते थे। ऐसे में खून एक महत्वपूर्ण पदार्थ था, जिसका कि व्यक्ति की पहचान में उपयोग किया जा सकता था। लेकिन, सन 1901 तक मानव शरीर के बारे में हमारी समझदारी इतनी स्पष्ट नहीं हो पायी थी कि हम रक़्त को मानव पहचान का सक्षम साधन मान सकें। असल में 1901ईo तक वैज्ञानिकों के बीच यह मत था कि हर मानव का रक्त एक दूसरे के एकदम समान होता है। यह एक ऐसा विश्वास था जिसके कारण डॉक्टर्स किसी भी मरीज़ के शरीर में ज़रूरत पड़ने पर किसी का भी रक्त डाल देते थे, और यह रक्त आपस में कई बार अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेता था। 19वीं शताब्दी में इस तरह अनगिनत मरीज़ मारे गये। जिन्हें सिर्फ़ इसलिये नहीं बचाया जा सका, क्योंकि हम रक्त समूहों के बारे में नहीं जानते थे और यह भी नहीं जानते थे कि कुछ रक्त समूह आपस में एक दूसरे से अभिक्रिया करके मरीज़ की जान ले लेते हैं।
वस्तुतः, मानव रक्त चार प्रकार का होता है A, B, AB, और O| इन चार समूहों के बारे में सबसे पहले 1901 में वैज्ञानिक “कार्ल लैण्डस्टेनर” ने बताया और इनके सम्बन्ध में प्रयोगों का प्रदर्शन किया। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, मगर इसका भी मानव की पहचान सुनिश्चित करने से कॊई ख़ास लेना देना नहीं था। यह पूर्णतः जैविकी से सम्बन्धित खोज थी, इस खोज के कारण हर रोज हो रहीं तमाम मौतों से लोगों को बचा लिया गया। डॉक्टरों ने बिना रक्त समूह की जाँच किये रक्त को मरीज़ के शरीर में डालना बन्द कर दिया। लेकिन, ये रक्त समूह सिर्फ़ चार प्रकार के थे और औसत रूप से एक चौथाई जनसंख्या का रक्त समूह समान था, इस तरह किसी आपराधिक घटना में यदि १० लोगों को गिरफ़्तार किया जाये तो दस में से पाँच के रक्त समूह समान होने की बहुत अधिक सम्भावना है। यह बात ज़रुर है कि यदि घटना स्थल पर मिले रक्त का रक्त समूह अभियुक्त के रक्त समूह से नहीं मिलता तो घटना में उस व्यक्ति के शामिल होने की सम्भावना खत्म हो जाती है। अतः रक्त समूह के आधार पर किसी व्यक्ति की त्रुटिरहित पहचान करने के लिये न सिर्फ़ अपर्याप्त था, बल्कि स्वपन लोक की कल्पना की तरह था।
घटना स्थल से मिले अवशेषों में रक्त ही एक ऐसा जैव-शारीरिक पदार्थ था जिससे मानव पहचान के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों को सबसे ज़्यादा आशायें थीं, साथ ही वैज्ञानिकों की नज़र में मानव चिकित्सा की नज़र से भी रक्त एक महत्वपूर्ण पदार्थ है। इस कारण से वैज्ञानिक चिकित्सा और जीव शरीर विज्ञान की नज़र से रक्त की विशेषताऒं का विश्लेशण कर रहे थे। इसी के साथ-साथ फोरेंसिक क्षेत्र के वैज्ञानिक भी अपने लिये शोध कर रहे थे। समय के साथ वैज्ञानिकों ने रक्त की अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं को खोजा। जिनमें से 1937 में हुय़ी एक महत्वपूर्ण खोज थी रक्त के Rh गुणाँक (factor) की खोज। मानव रक्त में ऐसे 100 गुणाँक होते हैं, जिनकी सहायता से रक्त के आधार पर व्यक्ति की बहुत त्रुटिहीनाता के साथ सही पहचान हो सकती है। यह खोज भी एक क्राँतिकारी खोज थी, और इस तकनीक की सहायता से 99% से भी अधिक निश्चितता के साथ पहचान साबित की जा सकती थी। फिर भी, जिस स्पष्टता और निश्चितता (यानि 99.999%) की माँग किसी भी देश का न्यायालय करता है, या जीवन मरण के फ़ैसले देने के लिये जिस स्तर की स्पष्टता और सुनिश्चितता होनी चाहिये, वह स्पष्टता और सुनिश्चितता उपरोक्त तकनीक उपलब्ध कराने में अक्षम थी। अतः इस तरह शोध कार्य चलता रहा।
--Meher Wan
No comments:
Post a Comment