Thursday, March 17, 2011

एक बार फिर कटघरे में आईपीसीसी

पिछ्ले कुछ सालों से जलवायु परिवर्तन, बहस का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है। तमाम देशों की सरकारों ने अपने बज़ट में से भारी-भरकम राशि जलवायु परिवर्तन पर शोधकार्य के लिये आवंटित करना शुरु कर दी है, साथ ही जलवायु परिवर्तन से बचने के उपायों के अमल में लाने के लिये जनजागरुकता उत्पन्न करने पर ज़ोर-शोर से खर्च हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलनों में विकासशील देशो के प्रधानमंत्रियों पर दबाव डाला जाने लगा कि वे अपने अपने देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर आंकड़े इकट्ठे करायें और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लायें। अमेरिका जैसे विकसित देश, भारत जैसे विकासशील देशों पर राजनीतिक दबाव बनाने में सफ़ल रहे, और इस राजनीतिक दबाव का इस्तेमाल कई बार अपने हितों को साधने के लिये किया गया। विश्व बैंक ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर विकासशील और अविकसित देशों को अरबॊं डॉलर कर्ज़ बाँटा।
     जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों को माना जाता है। ग्रीन हाउस गैसें वो गैसें होतीं हैं जो कि बाहर से मिल रही गर्मी या ऊष्मा को अपने अन्दर सोख लेतीं हैं। ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो कि अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऎसे में इन पौधों को काँच के एक बन्द घर में रखा जाता है और उस काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधे गर्म रहते हैं।  ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली  किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी के पर्यावरण द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फ़ैली ग्रीन हाउस गैसॊं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पृथ्वी को गर्म रखने में इन गैसों का महत्वपूर्ण योगदान है। अगर इन गैसों का अस्तित्व हमारे पर्यावरण में न होता तो पृथ्वी पर तापमान वर्तमान तापमान से काफ़ी कम होता।
      ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण गैस कार्बन डाई ऑक्साइड है, जिसका हम जीवित प्राणी अपनी साँस के साथ उत्सर्जन करते हैं। शोध के दौरान, पर्यावरण विज्ञानियों ने पाया कि पिछ्ले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाई ऑक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। साथ ही यह भी पाया गया कि सन 1995 के बाद के साल पृथ्वी पर पिछ्ले कुछ सौ वर्षों में सबसे गर्म वर्षों में से थे। कुछ वैज्ञानिकों ने कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया। सन 2006  में एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म आयी-द इन्कन्वीनियेंट ट्रुथ। यह डॉक्यूमेन्ट्री फ़िल्म तापमान वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन पर केन्द्रित थी। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में थे- अमेरिकी उप-राष्ट्रपति अल गोरऔर इस फ़िल्म  का निर्देशन डेविस गुग्न्हेम ने किया था। इस फ़िल्म में ग्लोबल वार्मिंग को एक विभीषिका की तरह दर्शाया गया था, जिसका प्रमुख कारण मानव जनित कार्बन उत्सर्जन और कार्बन डाई ऑक्साइड गैस माना गया। इस फ़िल्म को बहुत सराहा गया और फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेन्ट्री का ऑस्कर अवार्ड भी मिला। हालाँकि ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों द्वारा शोध कार्य जारी रहा, मगर इस बीच यह मान्यता बन गयी कि पृथ्वी पर हो रही तापमान वृद्धि के लिये ज़िम्मेदार कार्बन उत्सर्जन है जो कि मानव जनित है। इसका प्रभाव विश्व के राजनीतिक घटनाक्रम पर भी पड़ा। विश्व बैंक को गरीब देशों को कर्ज़ देने का एक और मुददा मिल गया। इसके कुछ वर्षों पहले जलवायु परिवर्तन के लिये अन्तर्सरकारी दल’(Intergovernmental Panel on Climate Change) का गठन किया गया था। सन 2007 में इस अन्तर्सरकारी दल और तत्कालीन अमेरिकी  उपराष्ट्रपति अल गोर को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। सन 2007 में आयी आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में पूरी तरह से इस बात पर सहमति बन गयी थी कि वर्तमान में पर्यावरण में हो रही तापमान वृद्धि के लिये पूरी तरह से ज़िम्मेदार मानव जनित ग्रीन हाउस गैसें हैं, जिनमें कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा सबसे ज़्यादा है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि सन 2035 तक  हिमालय के ग्लेशियर पूरी तरह से पिघल जायेंगे।
     आईपीसीसी वस्तुतः एक ऎसा अंतर्सरकारी वैज्ञानिक संगठन है जो कि विश्व भर में अर्जित की गयी उन अद्यतन वैज्ञानिक, सामाजिक-आर्थिक जानकारियों को इकट्ठा और समीक्षा करता है जो कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई होती हैं। आईपीसीसी का गठन सन 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली के दौरान हुआ था।  यह दल खुद शोध कार्य नहीं करता और न ही जलवायु के विभिन्न कारकॊं पर नज़र रखता है। यह दल सिर्फ़ प्रतिष्ठित जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्रों के आधार पर जलवायु परिवर्तन पर अपनी राय बनाता है, इसका प्रमुख केन्द्र जलवायु को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारक होते हैं । इस राय को आईपीसीसी अपनी रिपोर्ट्स के ज़रिये सरकारों और आम जनता तक पहुँचाता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट्स का हवाला विश्व भर में तमाम नीति निर्धारक संगठनॊं और सरकारों द्वारा दिया जाता है। इन रिपोर्ट्स को आधार बनाकर सरकारें अपना बज़ट और नीतियाँ तय करती हैं।
आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट की आलोचना, सन 2007 से लगातार हो रही है। 13 मार्च, 2010 को जलवायु वैज्ञानिकों ने आईपीसीसी को एक खुला खत लिखा था जिसमें कि लगभग 250 जलवायु वैज्ञानिकों के हस्ताक्षर थे। इस खुले खत में जलवायु वैज्ञानिकों ने आईपीसीसी पर यह आरोप लगाया था कि आईपीसीसी ने तथ्यों को बढाचढा कर पेश किया है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना था कि जलवायु परिवर्तन पर मानव जनित कारकॊं का प्रभाव दर्शाते हुये आईपीसीसी ने अन्य प्राकृतिक और महत्वपूर्ण कारकों के प्रभावों की उपेक्षा की है।
इसी क्रम में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भारतीय जर्नल करेंट साइंस के 100वें वॉल्यूम में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ है, जिसमें आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवालिया निशान लगाये गये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90% योगदान मानव जनित कार्बन उत्सर्जन का है। जबकि प्रोफ़ेसर यू.आर.राव अपने शोध के आधार पर कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग में 40% योगदान तो सिर्फ़ कॉस्मिक विकिरण का है। इसके अलावा कई अन्य कारक भी हैं जिनका ग्लोबल वार्मिंग में यॊगदान है जिनके बारे में शोध कार्य पूरा नहीं हुआ है। प्रोफ़ेसर यू.आर. राव का कहना है कि मानव जनित कार्बन उत्सर्जन के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव को आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में बढा-चढाकर पेश किया गया।
इसरो के पूर्व चेयरमेन और भौतिकविद प्रोफ़ेसर यू.आर.राव अपने शोध पत्र में लिखते हैं कि कॉस्मिक विकिरण का सीधा सम्बन्ध सौर कियाशीलता से होता है। अगर सूरज की क्रियाशीलता बढती है तो ब्रह्माण्ड से आने वाले कॉस्मिक विकिरण की मात्रा कम हो जाती है। यह कॉस्मिक विकिरण निचले स्तर के बादलॊं के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह बात सबसे पहले स्वेन्समार्क और क्रिस्टेन्सन नामक वैज्ञानियों ने भी कही थी जिस पर अब वैज्ञानिकों में आम सहमति है। यह निचले स्तर के बादल सूरज से आने वाले विकिरण को परावर्तित कर देते हैं। जिस कारण से पृथ्वी पर सूरज से आने वाले विकिरण के साथ आयी गर्मी भी परावर्तित होकर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है। सन 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई है। जिसे कि सूरज पर निर्मित स्पॉट्स और सूरज से आने वाली चुम्बकीय हवाऒं से मापा जाता है। विश्व भर के वैज्ञानिक इन कारकों पर लगातार नज़र रखते हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया कि सन 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई है। सूरज की क्रियाशीलता में वृद्धि के कारण पृथ्वी पर आपतित होने वाले कॉस्मिक विकिरण में लगभग 9% कमी आयी है। इस विकिरण में आयी कमी से पृथ्वी पर बनने वाले खास तरह के निचले स्तर के बादलॊं के निर्माण में भी कमी आई है, जिससे सूरज से आने वाला विकिरण परावर्तित नहीं हो पाता है। यह विकिरण पृथ्वी के पर्यावरण द्वारा सोख लिया जाता है और इस कारण से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि दृष्टिगोचर होती है। ग्लोबल वार्मिंग में इस प्रक्रिया का 40% योगदान है। जबकि इस प्रक्रिया मानव जनित नहीं है और न ही मानव इसे संचालित कर सकता है। इस तरह यह शोध आईपीसीसी के इस निष्कर्ष का खंडन करता है कि ग्लॊबल वार्मिंग में 90% योगदान मानव का है। अगर ग्लॊबल वार्मिंग के अन्य कारकॊ का अध्य्यन किया जाये तो मानव का योगदान आईपीसीसी की रिपोर्ट की अपेक्षा बहुत कम होगा।
यू.आर.राव के शोध पत्र के प्रकाशन के ठीक दो दिन बाद विश्व के जाने माने वैज्ञानिक जर्नल नेचर में यूनीवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के प्रोफ़ेसर ऎन्ड्र्यू शेफ़र्ड का शोध पत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि, ग्रीनलैंड की बर्फ़ को पिघलने में उस समय से कहीं अधिक समय लगेगा जितना कि आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में कहा गया है। एन्ड्र्य़ू शेफर्ड अपने शोधपत्र में लिखते हैं कि ग्रीन लैंड की बर्फ़ अपेक्षाकॄत सुरक्षित है, उसे पिघलने में काफ़ी वक्त लगेगा। इसी तरह आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया था कि हिमालय के ग्लेशियर सन 2035 तक पिघल जायेंगे। शायद आपको याद होगा कि सन 1999 मे डॉ. वी.के.रैना ने अपने शोध के दौरान पाया था कि हिमालय के ग्लेशियर भी अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। इस पर आईपीसीसी के चेयरमेन राजेन्द्र पचौरी को बाद में सहमति भी जतानी पड़ी थी, भले ही शुरुआत में उन्होंने रैना के शोध को अपूर्ण बताया था।
इस तरह से वर्तमान में हो रहे जलवायु परिवर्तन पर शोध के परिणाम बहुत ही गम्भीर हो सकते हैं। अगर वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय इस बात पर सहमत हो जाता है, कि कॉस्मिक विकिरण का ग्लोबल वार्मिंग में महत्वपूर्ण योगदान है, अर्थात मानव का योगदान बहुत कम है, तो भारत जैसे तमाम विकासशील और अविकसित देशॊं पर कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने का दबाव बहुत हद तक कम हो जायेगा। भारत के केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं किइस शोध के कारण हम कार्बन उत्सर्जन कम करने के घरेलू प्रयास कम नहीं कर रहे है, लेकिन अगर यह सत्य है तो अंतर्राष्टीय वार्ताऒं में हम पर दबाव काफ़ी कम हो जायेगा।वहीं आईपीसीसी के पूर्व चेयरमेन रॉबर्ट वाटसन ने कहा था, आईपीसीसी के द्वारा की जाने वाली गलतियाँ इस दिशा में जा चुकीं हैं, जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बढा-चढाकर पेश करने से यह महसूस कराना चाह्ते हों कि जलवायु परिवर्तन मामले गम्भीर हैं। यह चिंतित करता है। आईईसीसी को इस मामले पर पुनरावलोकन करना चाहिये और स्वयं से पूछना चाहिये कि ऎसा क्यों हुआ? वाट्सन के ये शब्द मामले की गम्भीरता को प्रकट करते हैं। क्योंकि आईपीसीसी को जिस तरह सरकारों ने मान्यता दी है, आईपीसीसी की रिपोर्ट्स का असर देशों की राजनीति से लेकर बज़ट, विकास और लाइफ़ स्टाइल पर पड़ा है। कहीं ऎसा ना हो कि विज्ञान जिस पर आज भी आम जनता का भरोसा कायम है, विकसित देशों की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के हाथॊं का एक खिलौना बन जाये।   
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                                                                         मेहरबान राठौर

Thursday, March 3, 2011

एफ़.एम. प्रसारण: बाज़ारवाद का शिकार हुई उत्कृष्ट तकनीक

    भारत में रेडियो प्रसारण के लगभग 75 वर्ष बीतने को हैं। इस लम्बे समय में प्रसारण की संरचना और तरीकों में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। रेडियो प्रसारण के शुरुआती दौर में जहाँ चुम्बकीय टेप में रिकार्ड किये गये कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता था, वहीं आज डिजिटल तकनीक पर आधारित ऑडियो प्लेयर्स की सहायता से कार्यक्रमों को प्रसारित किया जाता है। डिजिटल तकनीक पर आधारित कार्यक्रमों के प्रसारण की गुणवत्ता में काफ़ी सुधार हुआ है। चुम्बकीय टेप में मोनो ट्रेक में रिकॉर्डिंग की जाती थी और अब डिजिटल तकनीक से स्टीरियो और मल्टी ट्रेक्स में रिकॉर्डिंग होने से  कई इफ़ेक्ट्स के साथ कार्यक्रमों को रिकॉर्ड करके प्रसारण की गुणवत्ता में सुधार किया जा रहा है। रेडियो प्रसारण के क्षेत्र में सबसे क्रान्तिकारी घटना थी एफ़.एम.प्रसारण की शुरुआत होना। मेरे हिसाब से, यदि तकनीकों के दुरुपयोग के बारे में अध्य्यन किया जाये तो रेडियो प्रसारण की एफ़.एम. तकनीक भी दुनियाँ की सबसे ज़्यादा दुरुपयोग का शिकार हुई तकनीकों में से एक साबित होगी।
    दरअसल, एफ़.एम.रेडियो प्रसारण की ऎसी तकनीक है, जिसकी सहायता से अत्यन्त उच्च कोटि की गुणवत्ता के साथ रेडियो कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा सकता है। रेडियो प्रसारण के शुरुआती दौर में कार्यक्रमॊं का प्रसारण ए.एम. अर्थात एम्प्लीट्यूड मोड्युलेशन पर आधारित तकनीक की सहायता से होता था। आकाशवाणी अर्थात ऑल इंडिया रेडियो के सभी प्राइमरी चैनलों का प्रसारण एम्प्लीट्यूड मोड्युलेटेड वेव्स की आवृत्ति (frequency) के बैंड पर होता था। समय के साथ शॉर्ट वेव पर भी प्रसारण किया जाने लगा। मगर इन दोनों तकनीकों में प्रसारण की गुणवत्ता लगभग समान ही थी। प्रसारण के बीच में खरखराहट और अनावश्यक और अवाँछित ध्वनियाँ भी प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों के साथ सुनाई देती थीं। शॉर्ट वेव और मीडियम वेव पर कार्यक्रम सुनने वाले लोग इस परेशानी के बारे में परिचित होंगे। इन अनावश्यक और अवाँछित ध्वनियों और खरखराहट से निजात पाने के लिये और प्रसारण की गुणवत्ता में सुधार के प्रयास लगातार होते रहे, क्योंकि रेडियो ने संचार क्राँति को नये आयाम दिये थे, और रेडियो, सूचनाओं के प्रसार का महत्वपूर्ण साधन बनकर उभर रहा था। इसी दौर में रेडियो प्रसारण की एफ़.एम.तकनीक का भी आविष्कार हुआ। जिसने रेडियो प्रसारण की परिभाषा बदल दी। खरखराहट और अवाँछित ध्वनियों से मुक्त प्रसारण, एफ़.एम. यानि फ़्रीक्वेन्सी (आवृत्ति) मॉड्युलेशन पर आधारित प्रसारण के कारण ही संभव हो सका। इतना साफ़ और स्पष्ट प्रसारण ए.एम और शॉर्ट वेव पर प्रसारण में कभी संभव नहीं था। अब हम रेडियो पर कार्यक्रमों को उसी गुणवता के साथ सुन सकते थे जिस तरह कार्यक्रम को सामने बैठ कर सुन रहे हों। मूलतः एफ़.एम. रेडियो तरंगों के प्रसारण की एक तकनीक है, लेकिन इस तकनीक पर बाज़ार के प्रभाव के कारण रेडियो पर कार्यक्रमों द्वारा मनोरंजन की एक शैली को एफ़.एम शैली के नाम से जाना जाने लगा। इस उच्च कोटि की प्रसारण विधि का बाज़ार और नव-उपनिवेशवादियों ने अपने लाभ के लिये मनमाने तरीके से इस्तेमाल किया। इस तरह जनकल्याण में प्रयोग की जा सकने वाली और जनता को सूचना सम्पन्न करने में सक्षम उच्च कोटि की गुणवत्ता वाली तकनीक को खोखले और लक्ष्यहीन मनोरंजन का साधन बनाया गया। दुनियाँ के युवाऒं और जनता का विश्व की अत्यन्त मूलभूत और अपरिहार्य समस्याऒं से ध्यान हटाकर खोखले और विचारहीन मनोरंजन के द्वारा एक गैरज़िम्मेदार और बौद्धिक विपन्न समाज बनाने में इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया। दुनियाँ के तमाम समाजशास्त्री और प्रगतिवादी, तथाकथित प्रगति की इस प्रक्रिया के मूक दर्शक बने रहे, और नवउपनिवेशवादी बाज़ार ने दुनियाँ के तमाम देशों के युवाऒं और जनता को प्रगति, आधुनिकता की चादर ऒढे छलायोजित मनोरंजन के द्वारा खोखला बनाया, और आज भी बना रहा है। 
   बींसवी सदी में तकनीक के क्षेत्र में अकल्पनीय प्रगति हुई। बीसवीं सदी में ही एक प्रतिभावान इंजीनियर पैदा हुआ था, जो कि तकनीक और उसके बाज़ारीकरण की चकाचौंध में गुम हो गया। उसके द्वारा आविष्कृत तकनीक का कोर्पोरेट शक्तियों ने भरपूर और मनमाना इस्तेमाल किया और लाभ कमाया। मगर शायद ही आपने किसी एड्विन हॉवार्ड आर्मस्ट्रॉग का नाम सुना हो। एड्विन आर्मस्ट्राँग बीसवीं सदी के प्रतिभावान और महत्वपूर्ण इंजीनियर्स में से एक था, जिसने रेडियो प्रसारण की एफ़.एम. तकनीक का आविष्कार किया था। तब एड्विन आर्मस्ट्राँग मात्र ग्यारह साल का ही रहा होगा, जब मारकोनी ने व्यावसायिक टेलीफॊनी का आविष्कार करके सनसनी फ़ैला दी थी। मारकोनी की इस सफ़लता से प्रभावित होकर एडविन आर्मस्ट्राँग ने वायरलेस तकनीक में शोध करने और इस दिशा में अपना कुछ योगदान करने का निर्णय लिया था। एडविन आर्मस्ट्राँग ने रेडियो प्रसारण की एफ़.एम.अर्थात फ़्रीक्वेन्सी मोड्यूलेशन पर आधारित तकनीक का आविष्कार करके रेडियो प्रसारण को एक नयी दिशा देते हुये टेलीविज़न, राडार और सेल्यूलर टेलीफ़ॊनी जैसी महत्वपूर्ण तकनीकों का रास्ता तैयार किया। आज भी एडविन आर्मस्ट्राँग की तकनीक इन तकनीकी सेवाऒं का आधार है। मगर आज तक एड्विन आर्मस्ट्राँग को अपनी मेहनत और खोजों के लिये कोई पहचान नहीं मिली। जब तक वह ज़िन्दा रहा, अपनी इन महत्वपूर्ण खोजों के लिये एक साधारण पहचान पाने का प्रयास करता रहा और ठीक उसी समय कॉरपोरेट इन महत्वपूर्ण खोजों का इस्तेमाल बिना किसी जिम्मेदारी के अपने लाभ के लिये करता रहा। अंततः, यह संघर्ष एडविन आर्मस्ट्राँग को गहरे निराशावाद की तरफ़ ले गया और उसने सन 1954 में आत्महत्या कर ली।
    सन 1933 में, एडविन आर्मस्ट्राँग एफ़.एम.तकनीक के आविष्कार में सफ़ल हो गया था, और नव-उपनिवेशवाद अस्सी के दशक तक इस तकनीक को अफ़्रीका में विचारहीन और खॊखले मनोरंजन के साथ पैसे कमाने में उपयोग कर रहा था। जिस तकनीक का उपयोग समाज को सूचना सम्पन्न और अपने समय की समस्याऒ के लिये जागरुक और ज़िम्मेदार बनाने में होना चाहिये था, उस तकनीक का उपयोग युवाऒं को छलायोजित मनोरंजन में मस्त होकर लम्पट और गैरजिम्मेदार बनाने का साधन बनाने में किया गया। वहीं बाज़ार ने एक नयी शब्दावली गढी- एफ़.एम.रेडियो चैनल की शब्दावली। वर्तमान में, एफ़.एम.शब्द का मतलब सामान्यतः एफ़.एम. रेडियो चैनल होता है, जिसपर एक रेडियो जॉकी नामक प्राणी बिना सिर-पैर की और अर्थरहित बातों को सतत, बिना रुके बोलता चला जाता है, और लोग उसे मनोरंजन का नाम दे देते हैं। रेडियो जॉकी की इन बातों का सामाजिक ज़िम्मेदारी से कोई लेना देना नहीं होता। न ही उसे जनता को सूचना सम्पन्न बनाने के सवाल से कोई सरोकार होता है। उसे तो सिर्फ़ आधुनिक और बॊल्ड होना होता है, जिसका मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़, किसी भी बात को कामुकता या लम्पटई से जोडकर कहने की महारत होता है। जो रेडियो जॉकी अपने श्रोताओं से जितने कामुक और लम्पट ढंग के साथ बात कर ले वही अच्छा कलाकार कहा जाता है। लेकिन यह किस तरह सी कला है, और किस तरह की कला सम्पन्नता?
   यहाँ पर कुछ महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। जिन एफ़.एम.चैनलों और जिस एफ़.एम.शैली की बात अक्सर अखबारों और पत्रिकाओं में होती है, वे सारे चैनल व्यक्तिगत या प्राइवेट होते हैं। वस्तुतः इन प्राइवेट चैनलॊं के लिये न तो कोई नियमावली है और न इनकी कोई ज़िम्मेदारी तय की गयी है। यहाँ तक कि यह चैनल जिन गीतों को अपने कार्यक्रमों में बजाते है उन गीतों का जनता के बीच प्रसारण के द्वारा लाभ कमाने के बद्ले, ये प्राइवेट चैनल न तो गीतों के अधिकार रखने वालों को रॉयल्टी देते हैं, न अपने कर्मचारियों अर्थात रेडियो जॉकी को मेहनत के मुताबिक वेतन। कहा जाता है कि युवाऒं को आसानी से छला जा सकता है क्योंकि वे जल्दबाज़ आशावादी होते हैं। एक बार जो युवा रेडियो जॉकी के पेशे की तरफ़ आ जाता है उसे इनके द्वारा दिये जाने वाले पैसों के एवज़ में मालिकों के मन-माफ़िक प्रदर्शन करना पडता है। कॉर्पोरेट द्वारा युवाऒं से यह कराना तब और आसान हो जाता है जब इसे आधुनिकता और बोल्ड्नेस से जोड दिया जाता है। अगर ध्यान से देखा जाये तो ये प्राइवेट एफ़.एम. चैनल इस बात पर भी सहानुभूति के पात्र नहीं हैं कि ये बडी मात्रा में रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराते हों। इस तरह यह चैनल, केवल युवाऒं की गतिशील विचार प्रक्रिया को निशाना बनाकर मुनाफ़ा कमाने और समाज में विवेक हीनता के साथ लम्पट मनोरंजन की परंपरा का निर्वाह करने वाली इकाई हैं।
   यहाँ पर सरकारी एफ़.एम.चैनलॊं के सम्बन्ध में भी बहस होना आवश्यक है। आज सम्पूर्ण भारत में कई शैक्षिक और स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध कराने वाले रेडियो चैनल एफ़.एम.तकनीक की सहायता से चल रहे हैं, जो कि ध्यान न दिये जाने के अभाव में अपना स्तर और श्रोताओं में पहुँच कम करते जा रहे है। सरकारी मदद से चलने वाले एफ़.एम.चैनल ज्ञानवाणी जैसे चैनल युवाऒं के लिये और अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, यदि इनमें कार्यक्रमॊं की गुणवत्ता में सुधार करते हुये, इन पर उचित रूप से ध्यान दिया जाये। आज भी आकाशवाणी का एफ़.एम. पर आधारित चैनल विविध भारती अपने कार्यक्रमॊं की गुणवत्ता और स्वस्थ मनोरंजन के लिये उदाहरण के रूप में पेश किया जा सकता है। प्राइवेट चैनलॊं की अपेक्षा इन सरकारी चैनलों पर ध्यान दिया जाये और इस तकनीक का इस्तेमाल सूचनाऒं और ज्ञान के संचार सहित स्वस्थ मनोरंजन के लिये किया जाये तो एफ़.एम. की छवि छलायोजित आनंद देकर बाज़ार के बदनाम हथियार के रूप में न होकर जन कल्याण और समाज को ज्ञानवान बनाकर ज़िम्मेदार बनाने का उपकरण के रूप में स्थापित होगी।
   एफ़.एम. रेडियो प्रसारण की एक उच्च कोटि की तकनीक है, और उस तकनीक का उपयोग समाचार, और सामाजिक मसलों पर बहसों में जनसामान्य की भागीदारी बढाने के लिये किया जाना चाहिये। एक समय में रेडियो ने सूचनाऒ के प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय कार्यक्रमॊं का प्रसारण ए.एम. अर्थात प्राइमरी चैनल और शॉर्ट वेव पर होता था। इन तकनीको की सहायता से प्रसारण साफ़ और स्पष्ट सुनाई नहीं देता, साथ ही इन फ़्रीक्वेन्सीज़ पर प्रसारण में खरखराहट और अनावश्यक ध्वनियाँ भी प्रसारण को उबाऊ बना देती है। आज के समय यदि समकालीन मुद्दों पर चर्चायें, समाचार, स्वस्थ मनोरंजन आकर्षक, रोचक और बेहतर ढंग से एफ़.एम फ़्रीक्वेन्सी बैंड पर एफ़.एम. तकनीक की सहायता से प्रसारित किये जायें तो यह कार्यक्रम साफ़, स्पष्ट और बेहतर गुणवत्ता के साथ जनता तक पहुँच सकेंगे। इसके साथ ही रेडियो एक बार फिर राष्ट्र निर्माण में कल्याणकारी भूमिका निभाते हुये, विज्ञान और तकनीक के बेहतर उदाहरण के रूप में उभर कर सामने आयेगा। अन्यथा, यह तकनीक किसी परमाणु बम से कम विनाशकारी नहीं साबित होगी, जो कि एक विचारहीन, विवेकहीन, और गैरज़िम्मेदार, अपंग पीढियों का निर्माण करेगी।          
   
                                                                                       
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                                                       -मेहरबान राठौर