पिछ्ले कुछ सालों से जलवायु परिवर्तन, बहस का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है। तमाम देशों की सरकारों ने अपने बज़ट में से भारी-भरकम राशि जलवायु परिवर्तन पर शोधकार्य के लिये आवंटित करना शुरु कर दी है, साथ ही जलवायु परिवर्तन से बचने के उपायों के अमल में लाने के लिये जनजागरुकता उत्पन्न करने पर ज़ोर-शोर से खर्च हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलनों में विकासशील देशो के प्रधानमंत्रियों पर दबाव डाला जाने लगा कि वे अपने अपने देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर आंकड़े इकट्ठे करायें और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लायें। अमेरिका जैसे विकसित देश, भारत जैसे विकासशील देशों पर राजनीतिक दबाव बनाने में सफ़ल रहे, और इस राजनीतिक दबाव का इस्तेमाल कई बार अपने हितों को साधने के लिये किया गया। विश्व बैंक ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर विकासशील और अविकसित देशों को अरबॊं डॉलर कर्ज़ बाँटा।
जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों को माना जाता है। ग्रीन हाउस गैसें वो गैसें होतीं हैं जो कि बाहर से मिल रही गर्मी या ऊष्मा को अपने अन्दर सोख लेतीं हैं। ग्रीन हाउस गैसों का इस्तेमाल सामान्यतः अत्यधिक सर्द इलाकों में उन पौधों को को गर्म रखने के लिये किया जाता है जो कि अत्यधिक सर्द मौसम में खराब हो जाते हैं। ऎसे में इन पौधों को काँच के एक बन्द घर में रखा जाता है और उस काँच के घर में ग्रीन हाउस गैस भर दी जाती है। यह गैस सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी सोख लेती है और पौधे गर्म रहते हैं। ठीक यही प्रक्रिया पृथ्वी के साथ होती है। सूरज से आने वाली किरणों की गर्मी की कुछ मात्रा को पृथ्वी के पर्यावरण द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण में फ़ैली ग्रीन हाउस गैसॊं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पृथ्वी को गर्म रखने में इन गैसों का महत्वपूर्ण योगदान है। अगर इन गैसों का अस्तित्व हमारे पर्यावरण में न होता तो पृथ्वी पर तापमान वर्तमान तापमान से काफ़ी कम होता।
ग्रीन हाउस गैसों में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण गैस कार्बन डाई ऑक्साइड है, जिसका हम जीवित प्राणी अपनी साँस के साथ उत्सर्जन करते हैं। शोध के दौरान, पर्यावरण विज्ञानियों ने पाया कि पिछ्ले कुछ वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन डाई ऑक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ी है। साथ ही यह भी पाया गया कि सन 1995 के बाद के साल पृथ्वी पर पिछ्ले कुछ सौ वर्षों में सबसे गर्म वर्षों में से थे। कुछ वैज्ञानिकों ने कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन और तापमान वृद्धि में गहरा सम्बन्ध बताया। सन 2006 में एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म आयी-“द इन्कन्वीनियेंट ट्रुथ”। यह डॉक्यूमेन्ट्री फ़िल्म तापमान वृद्धि और कार्बन उत्सर्जन पर केन्द्रित थी। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में थे- अमेरिकी उप-राष्ट्रपति “अल गोर” और इस फ़िल्म का निर्देशन डेविस गुग्न्हेम ने किया था। इस फ़िल्म में ग्लोबल वार्मिंग को एक विभीषिका की तरह दर्शाया गया था, जिसका प्रमुख कारण मानव जनित कार्बन उत्सर्जन और कार्बन डाई ऑक्साइड गैस माना गया। इस फ़िल्म को बहुत सराहा गया और फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेन्ट्री का ऑस्कर अवार्ड भी मिला। हालाँकि ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों द्वारा शोध कार्य जारी रहा, मगर इस बीच यह मान्यता बन गयी कि पृथ्वी पर हो रही तापमान वृद्धि के लिये ज़िम्मेदार कार्बन उत्सर्जन है जो कि मानव जनित है। इसका प्रभाव विश्व के राजनीतिक घटनाक्रम पर भी पड़ा। विश्व बैंक को गरीब देशों को कर्ज़ देने का एक और मुददा मिल गया। इसके कुछ वर्षों पहले “जलवायु परिवर्तन के लिये अन्तर्सरकारी दल’(Intergovernmental Panel on Climate Change) का गठन किया गया था। सन 2007 में इस अन्तर्सरकारी दल और तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति अल गोर को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। सन 2007 में आयी आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में पूरी तरह से इस बात पर सहमति बन गयी थी कि वर्तमान में पर्यावरण में हो रही तापमान वृद्धि के लिये पूरी तरह से ज़िम्मेदार मानव जनित ग्रीन हाउस गैसें हैं, जिनमें कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा सबसे ज़्यादा है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि सन 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर पूरी तरह से पिघल जायेंगे।
आईपीसीसी वस्तुतः एक ऎसा अंतर्सरकारी वैज्ञानिक संगठन है जो कि विश्व भर में अर्जित की गयी उन अद्यतन वैज्ञानिक, सामाजिक-आर्थिक जानकारियों को इकट्ठा और समीक्षा करता है जो कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई होती हैं। आईपीसीसी का गठन सन 1988 में संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली के दौरान हुआ था। यह दल खुद शोध कार्य नहीं करता और न ही जलवायु के विभिन्न कारकॊं पर नज़र रखता है। यह दल सिर्फ़ प्रतिष्ठित जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्रों के आधार पर जलवायु परिवर्तन पर अपनी राय बनाता है, इसका प्रमुख केन्द्र जलवायु को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारक होते हैं । इस राय को आईपीसीसी अपनी रिपोर्ट्स के ज़रिये सरकारों और आम जनता तक पहुँचाता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट्स का हवाला विश्व भर में तमाम नीति निर्धारक संगठनॊं और सरकारों द्वारा दिया जाता है। इन रिपोर्ट्स को आधार बनाकर सरकारें अपना बज़ट और नीतियाँ तय करती हैं।
आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट की आलोचना, सन 2007 से लगातार हो रही है। 13 मार्च, 2010 को जलवायु वैज्ञानिकों ने आईपीसीसी को एक खुला खत लिखा था जिसमें कि लगभग 250 जलवायु वैज्ञानिकों के हस्ताक्षर थे। इस खुले खत में जलवायु वैज्ञानिकों ने आईपीसीसी पर यह आरोप लगाया था कि आईपीसीसी ने तथ्यों को बढाचढा कर पेश किया है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना था कि जलवायु परिवर्तन पर मानव जनित कारकॊं का प्रभाव दर्शाते हुये आईपीसीसी ने अन्य प्राकृतिक और महत्वपूर्ण कारकों के प्रभावों की उपेक्षा की है।
इसी क्रम में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भारतीय जर्नल “करेंट साइंस” के 100वें वॉल्यूम में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ है, जिसमें आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवालिया निशान लगाये गये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग में 90% योगदान मानव जनित कार्बन उत्सर्जन का है। जबकि प्रोफ़ेसर यू.आर.राव अपने शोध के आधार पर कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग में 40% योगदान तो सिर्फ़ कॉस्मिक विकिरण का है। इसके अलावा कई अन्य कारक भी हैं जिनका ग्लोबल वार्मिंग में यॊगदान है जिनके बारे में शोध कार्य पूरा नहीं हुआ है। प्रोफ़ेसर यू.आर. राव का कहना है कि मानव जनित कार्बन उत्सर्जन के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव को आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में बढा-चढाकर पेश किया गया।
इसरो के पूर्व चेयरमेन और भौतिकविद प्रोफ़ेसर यू.आर.राव अपने शोध पत्र में लिखते हैं कि कॉस्मिक विकिरण का सीधा सम्बन्ध सौर कियाशीलता से होता है। अगर सूरज की क्रियाशीलता बढती है तो ब्रह्माण्ड से आने वाले कॉस्मिक विकिरण की मात्रा कम हो जाती है। यह कॉस्मिक विकिरण निचले स्तर के बादलॊं के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह बात सबसे पहले स्वेन्समार्क और क्रिस्टेन्सन नामक वैज्ञानियों ने भी कही थी जिस पर अब वैज्ञानिकों में आम सहमति है। यह निचले स्तर के बादल सूरज से आने वाले विकिरण को परावर्तित कर देते हैं। जिस कारण से पृथ्वी पर सूरज से आने वाले विकिरण के साथ आयी गर्मी भी परावर्तित होकर ब्रह्माण्ड में वापस चली जाती है। सन 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई है। जिसे कि सूरज पर निर्मित स्पॉट्स और सूरज से आने वाली चुम्बकीय हवाऒं से मापा जाता है। विश्व भर के वैज्ञानिक इन कारकों पर लगातार नज़र रखते हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया कि सन 1925 से सूरज की क्रियाशीलता में लगातार वृद्धि हुई है। सूरज की क्रियाशीलता में वृद्धि के कारण पृथ्वी पर आपतित होने वाले कॉस्मिक विकिरण में लगभग 9% कमी आयी है। इस विकिरण में आयी कमी से पृथ्वी पर बनने वाले खास तरह के निचले स्तर के बादलॊं के निर्माण में भी कमी आई है, जिससे सूरज से आने वाला विकिरण परावर्तित नहीं हो पाता है। यह विकिरण पृथ्वी के पर्यावरण द्वारा सोख लिया जाता है और इस कारण से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि दृष्टिगोचर होती है। ग्लोबल वार्मिंग में इस प्रक्रिया का 40% योगदान है। जबकि इस प्रक्रिया मानव जनित नहीं है और न ही मानव इसे संचालित कर सकता है। इस तरह यह शोध आईपीसीसी के इस निष्कर्ष का खंडन करता है कि ग्लॊबल वार्मिंग में 90% योगदान मानव का है। अगर ग्लॊबल वार्मिंग के अन्य कारकॊ का अध्य्यन किया जाये तो मानव का योगदान आईपीसीसी की रिपोर्ट की अपेक्षा बहुत कम होगा।
यू.आर.राव के शोध पत्र के प्रकाशन के ठीक दो दिन बाद विश्व के जाने माने वैज्ञानिक जर्नल “नेचर” में यूनीवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के प्रोफ़ेसर ऎन्ड्र्यू शेफ़र्ड का शोध पत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि, ग्रीनलैंड की बर्फ़ को पिघलने में उस समय से कहीं अधिक समय लगेगा जितना कि आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में कहा गया है। एन्ड्र्य़ू शेफर्ड अपने शोधपत्र में लिखते हैं कि ग्रीन लैंड की बर्फ़ अपेक्षाकॄत सुरक्षित है, उसे पिघलने में काफ़ी वक्त लगेगा। इसी तरह आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया था कि हिमालय के ग्लेशियर सन 2035 तक पिघल जायेंगे। शायद आपको याद होगा कि सन 1999 मे डॉ. वी.के.रैना ने अपने शोध के दौरान पाया था कि हिमालय के ग्लेशियर भी अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं। इस पर आईपीसीसी के चेयरमेन राजेन्द्र पचौरी को बाद में सहमति भी जतानी पड़ी थी, भले ही शुरुआत में उन्होंने रैना के शोध को अपूर्ण बताया था।
इस तरह से वर्तमान में हो रहे जलवायु परिवर्तन पर शोध के परिणाम बहुत ही गम्भीर हो सकते हैं। अगर वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय इस बात पर सहमत हो जाता है, कि कॉस्मिक विकिरण का ग्लोबल वार्मिंग में महत्वपूर्ण योगदान है, अर्थात मानव का योगदान बहुत कम है, तो भारत जैसे तमाम विकासशील और अविकसित देशॊं पर कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने का दबाव बहुत हद तक कम हो जायेगा। भारत के केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि” इस शोध के कारण हम कार्बन उत्सर्जन कम करने के घरेलू प्रयास कम नहीं कर रहे है, लेकिन अगर यह सत्य है तो अंतर्राष्टीय वार्ताऒं में हम पर दबाव काफ़ी कम हो जायेगा।“ वहीं आईपीसीसी के पूर्व चेयरमेन रॉबर्ट वाटसन ने कहा था, “आईपीसीसी के द्वारा की जाने वाली गलतियाँ इस दिशा में जा चुकीं हैं, जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बढा-चढाकर पेश करने से यह महसूस कराना चाह्ते हों कि जलवायु परिवर्तन मामले गम्भीर हैं। यह चिंतित करता है। आईईसीसी को इस मामले पर पुनरावलोकन करना चाहिये और स्वयं से पूछना चाहिये कि ऎसा क्यों हुआ?” वाट्सन के ये शब्द मामले की गम्भीरता को प्रकट करते हैं। क्योंकि आईपीसीसी को जिस तरह सरकारों ने मान्यता दी है, आईपीसीसी की रिपोर्ट्स का असर देशों की राजनीति से लेकर बज़ट, विकास और लाइफ़ स्टाइल पर पड़ा है। कहीं ऎसा ना हो कि विज्ञान जिस पर आज भी आम जनता का भरोसा कायम है, विकसित देशों की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के हाथॊं का एक खिलौना बन जाये।
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मेहरबान राठौर