भारत में रेडियो प्रसारण के लगभग 75 वर्ष बीतने को हैं। इस लम्बे समय में प्रसारण की संरचना और तरीकों में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। रेडियो प्रसारण के शुरुआती दौर में जहाँ चुम्बकीय टेप में रिकार्ड किये गये कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता था, वहीं आज डिजिटल तकनीक पर आधारित ऑडियो प्लेयर्स की सहायता से कार्यक्रमों को प्रसारित किया जाता है। डिजिटल तकनीक पर आधारित कार्यक्रमों के प्रसारण की गुणवत्ता में काफ़ी सुधार हुआ है। चुम्बकीय टेप में मोनो ट्रेक में रिकॉर्डिंग की जाती थी और अब डिजिटल तकनीक से स्टीरियो और मल्टी ट्रेक्स में रिकॉर्डिंग होने से कई इफ़ेक्ट्स के साथ कार्यक्रमों को रिकॉर्ड करके प्रसारण की गुणवत्ता में सुधार किया जा रहा है। रेडियो प्रसारण के क्षेत्र में सबसे क्रान्तिकारी घटना थी एफ़.एम.प्रसारण की शुरुआत होना। मेरे हिसाब से, यदि तकनीकों के दुरुपयोग के बारे में अध्य्यन किया जाये तो रेडियो प्रसारण की एफ़.एम. तकनीक भी दुनियाँ की सबसे ज़्यादा दुरुपयोग का शिकार हुई तकनीकों में से एक साबित होगी।
दरअसल, एफ़.एम.रेडियो प्रसारण की ऎसी तकनीक है, जिसकी सहायता से अत्यन्त उच्च कोटि की गुणवत्ता के साथ रेडियो कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा सकता है। रेडियो प्रसारण के शुरुआती दौर में कार्यक्रमॊं का प्रसारण ए.एम. अर्थात एम्प्लीट्यूड मोड्युलेशन पर आधारित तकनीक की सहायता से होता था। आकाशवाणी अर्थात ऑल इंडिया रेडियो के सभी प्राइमरी चैनलों का प्रसारण एम्प्लीट्यूड मोड्युलेटेड वेव्स की आवृत्ति (frequency) के बैंड पर होता था। समय के साथ शॉर्ट वेव पर भी प्रसारण किया जाने लगा। मगर इन दोनों तकनीकों में प्रसारण की गुणवत्ता लगभग समान ही थी। प्रसारण के बीच में खरखराहट और अनावश्यक और अवाँछित ध्वनियाँ भी प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों के साथ सुनाई देती थीं। शॉर्ट वेव और मीडियम वेव पर कार्यक्रम सुनने वाले लोग इस परेशानी के बारे में परिचित होंगे। इन अनावश्यक और अवाँछित ध्वनियों और खरखराहट से निजात पाने के लिये और प्रसारण की गुणवत्ता में सुधार के प्रयास लगातार होते रहे, क्योंकि रेडियो ने संचार क्राँति को नये आयाम दिये थे, और रेडियो, सूचनाओं के प्रसार का महत्वपूर्ण साधन बनकर उभर रहा था। इसी दौर में रेडियो प्रसारण की एफ़.एम.तकनीक का भी आविष्कार हुआ। जिसने रेडियो प्रसारण की परिभाषा बदल दी। खरखराहट और अवाँछित ध्वनियों से मुक्त प्रसारण, एफ़.एम. यानि फ़्रीक्वेन्सी (आवृत्ति) मॉड्युलेशन पर आधारित प्रसारण के कारण ही संभव हो सका। इतना साफ़ और स्पष्ट प्रसारण ए.एम और शॉर्ट वेव पर प्रसारण में कभी संभव नहीं था। अब हम रेडियो पर कार्यक्रमों को उसी गुणवता के साथ सुन सकते थे जिस तरह कार्यक्रम को सामने बैठ कर सुन रहे हों। मूलतः एफ़.एम. रेडियो तरंगों के प्रसारण की एक तकनीक है, लेकिन इस तकनीक पर बाज़ार के प्रभाव के कारण रेडियो पर कार्यक्रमों द्वारा मनोरंजन की एक शैली को एफ़.एम शैली के नाम से जाना जाने लगा। इस उच्च कोटि की प्रसारण विधि का बाज़ार और नव-उपनिवेशवादियों ने अपने लाभ के लिये मनमाने तरीके से इस्तेमाल किया। इस तरह जनकल्याण में प्रयोग की जा सकने वाली और जनता को सूचना सम्पन्न करने में सक्षम उच्च कोटि की गुणवत्ता वाली तकनीक को खोखले और लक्ष्यहीन मनोरंजन का साधन बनाया गया। दुनियाँ के युवाऒं और जनता का विश्व की अत्यन्त मूलभूत और अपरिहार्य समस्याऒं से ध्यान हटाकर खोखले और विचारहीन मनोरंजन के द्वारा एक गैरज़िम्मेदार और बौद्धिक विपन्न समाज बनाने में इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया। दुनियाँ के तमाम समाजशास्त्री और प्रगतिवादी, तथाकथित प्रगति की इस प्रक्रिया के मूक दर्शक बने रहे, और नवउपनिवेशवादी बाज़ार ने दुनियाँ के तमाम देशों के युवाऒं और जनता को प्रगति, आधुनिकता की चादर ऒढे छलायोजित मनोरंजन के द्वारा खोखला बनाया, और आज भी बना रहा है।
बींसवी सदी में तकनीक के क्षेत्र में अकल्पनीय प्रगति हुई। बीसवीं सदी में ही एक प्रतिभावान इंजीनियर पैदा हुआ था, जो कि तकनीक और उसके बाज़ारीकरण की चकाचौंध में गुम हो गया। उसके द्वारा आविष्कृत तकनीक का कोर्पोरेट शक्तियों ने भरपूर और मनमाना इस्तेमाल किया और लाभ कमाया। मगर शायद ही आपने किसी “एड्विन हॉवार्ड आर्मस्ट्रॉग” का नाम सुना हो। एड्विन आर्मस्ट्राँग बीसवीं सदी के प्रतिभावान और महत्वपूर्ण इंजीनियर्स में से एक था, जिसने रेडियो प्रसारण की एफ़.एम. तकनीक का आविष्कार किया था। तब एड्विन आर्मस्ट्राँग मात्र ग्यारह साल का ही रहा होगा, जब मारकोनी ने व्यावसायिक टेलीफॊनी का आविष्कार करके सनसनी फ़ैला दी थी। मारकोनी की इस सफ़लता से प्रभावित होकर एडविन आर्मस्ट्राँग ने वायरलेस तकनीक में शोध करने और इस दिशा में अपना कुछ योगदान करने का निर्णय लिया था। एडविन आर्मस्ट्राँग ने रेडियो प्रसारण की एफ़.एम.अर्थात फ़्रीक्वेन्सी मोड्यूलेशन पर आधारित तकनीक का आविष्कार करके रेडियो प्रसारण को एक नयी दिशा देते हुये टेलीविज़न, राडार और सेल्यूलर टेलीफ़ॊनी जैसी महत्वपूर्ण तकनीकों का रास्ता तैयार किया। आज भी एडविन आर्मस्ट्राँग की तकनीक इन तकनीकी सेवाऒं का आधार है। मगर आज तक एड्विन आर्मस्ट्राँग को अपनी मेहनत और खोजों के लिये कोई पहचान नहीं मिली। जब तक वह ज़िन्दा रहा, अपनी इन महत्वपूर्ण खोजों के लिये एक साधारण पहचान पाने का प्रयास करता रहा और ठीक उसी समय कॉरपोरेट इन महत्वपूर्ण खोजों का इस्तेमाल बिना किसी जिम्मेदारी के अपने लाभ के लिये करता रहा। अंततः, यह संघर्ष एडविन आर्मस्ट्राँग को गहरे निराशावाद की तरफ़ ले गया और उसने सन 1954 में आत्महत्या कर ली।
सन 1933 में, एडविन आर्मस्ट्राँग एफ़.एम.तकनीक के आविष्कार में सफ़ल हो गया था, और नव-उपनिवेशवाद अस्सी के दशक तक इस तकनीक को अफ़्रीका में विचारहीन और खॊखले मनोरंजन के साथ पैसे कमाने में उपयोग कर रहा था। जिस तकनीक का उपयोग समाज को सूचना सम्पन्न और अपने समय की समस्याऒ के लिये जागरुक और ज़िम्मेदार बनाने में होना चाहिये था, उस तकनीक का उपयोग युवाऒं को छलायोजित मनोरंजन में मस्त होकर लम्पट और गैरजिम्मेदार बनाने का साधन बनाने में किया गया। वहीं बाज़ार ने एक नयी शब्दावली गढी- एफ़.एम.रेडियो चैनल की शब्दावली। वर्तमान में, एफ़.एम.शब्द का मतलब सामान्यतः एफ़.एम. रेडियो चैनल होता है, जिसपर एक रेडियो जॉकी नामक प्राणी बिना सिर-पैर की और अर्थरहित बातों को सतत, बिना रुके बोलता चला जाता है, और लोग उसे मनोरंजन का नाम दे देते हैं। रेडियो जॉकी की इन बातों का सामाजिक ज़िम्मेदारी से कोई लेना देना नहीं होता। न ही उसे जनता को सूचना सम्पन्न बनाने के सवाल से कोई सरोकार होता है। उसे तो सिर्फ़ आधुनिक और बॊल्ड होना होता है, जिसका मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़, किसी भी बात को कामुकता या लम्पटई से जोडकर कहने की महारत होता है। जो रेडियो जॉकी अपने श्रोताओं से जितने कामुक और लम्पट ढंग के साथ बात कर ले वही अच्छा कलाकार कहा जाता है। लेकिन यह किस तरह सी कला है, और किस तरह की कला सम्पन्नता?
यहाँ पर कुछ महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। जिन एफ़.एम.चैनलों और जिस एफ़.एम.शैली की बात अक्सर अखबारों और पत्रिकाओं में होती है, वे सारे चैनल व्यक्तिगत या प्राइवेट होते हैं। वस्तुतः इन प्राइवेट चैनलॊं के लिये न तो कोई नियमावली है और न इनकी कोई ज़िम्मेदारी तय की गयी है। यहाँ तक कि यह चैनल जिन गीतों को अपने कार्यक्रमों में बजाते है उन गीतों का जनता के बीच प्रसारण के द्वारा लाभ कमाने के बद्ले, ये प्राइवेट चैनल न तो गीतों के अधिकार रखने वालों को रॉयल्टी देते हैं, न अपने कर्मचारियों अर्थात रेडियो जॉकी को मेहनत के मुताबिक वेतन। कहा जाता है कि युवाऒं को आसानी से छला जा सकता है क्योंकि वे जल्दबाज़ आशावादी होते हैं। एक बार जो युवा रेडियो जॉकी के पेशे की तरफ़ आ जाता है उसे इनके द्वारा दिये जाने वाले पैसों के एवज़ में मालिकों के मन-माफ़िक प्रदर्शन करना पडता है। कॉर्पोरेट द्वारा युवाऒं से यह कराना तब और आसान हो जाता है जब इसे आधुनिकता और बोल्ड्नेस से जोड दिया जाता है। अगर ध्यान से देखा जाये तो ये प्राइवेट एफ़.एम. चैनल इस बात पर भी सहानुभूति के पात्र नहीं हैं कि ये बडी मात्रा में रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराते हों। इस तरह यह चैनल, केवल युवाऒं की गतिशील विचार प्रक्रिया को निशाना बनाकर मुनाफ़ा कमाने और समाज में विवेक हीनता के साथ लम्पट मनोरंजन की परंपरा का निर्वाह करने वाली इकाई हैं।
यहाँ पर सरकारी एफ़.एम.चैनलॊं के सम्बन्ध में भी बहस होना आवश्यक है। आज सम्पूर्ण भारत में कई शैक्षिक और स्वस्थ मनोरंजन उपलब्ध कराने वाले रेडियो चैनल एफ़.एम.तकनीक की सहायता से चल रहे हैं, जो कि ध्यान न दिये जाने के अभाव में अपना स्तर और श्रोताओं में पहुँच कम करते जा रहे है। सरकारी मदद से चलने वाले एफ़.एम.चैनल “ज्ञानवाणी” जैसे चैनल युवाऒं के लिये और अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं, यदि इनमें कार्यक्रमॊं की गुणवत्ता में सुधार करते हुये, इन पर उचित रूप से ध्यान दिया जाये। आज भी “आकाशवाणी” का एफ़.एम. पर आधारित चैनल “विविध भारती” अपने कार्यक्रमॊं की गुणवत्ता और स्वस्थ मनोरंजन के लिये उदाहरण के रूप में पेश किया जा सकता है। प्राइवेट चैनलॊं की अपेक्षा इन सरकारी चैनलों पर ध्यान दिया जाये और इस तकनीक का इस्तेमाल सूचनाऒं और ज्ञान के संचार सहित स्वस्थ मनोरंजन के लिये किया जाये तो एफ़.एम. की छवि “छलायोजित आनंद” देकर बाज़ार के बदनाम हथियार के रूप में न होकर जन कल्याण और समाज को ज्ञानवान बनाकर ज़िम्मेदार बनाने का उपकरण के रूप में स्थापित होगी।
“एफ़.एम.” रेडियो प्रसारण की एक उच्च कोटि की तकनीक है, और उस तकनीक का उपयोग समाचार, और सामाजिक मसलों पर बहसों में जनसामान्य की भागीदारी बढाने के लिये किया जाना चाहिये। एक समय में रेडियो ने सूचनाऒ के प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय कार्यक्रमॊं का प्रसारण “ए.एम.” अर्थात प्राइमरी चैनल और शॉर्ट वेव पर होता था। इन तकनीको की सहायता से प्रसारण साफ़ और स्पष्ट सुनाई नहीं देता, साथ ही इन फ़्रीक्वेन्सीज़ पर प्रसारण में खरखराहट और अनावश्यक ध्वनियाँ भी प्रसारण को उबाऊ बना देती है। आज के समय यदि समकालीन मुद्दों पर चर्चायें, समाचार, स्वस्थ मनोरंजन आकर्षक, रोचक और बेहतर ढंग से एफ़.एम फ़्रीक्वेन्सी बैंड पर एफ़.एम. तकनीक की सहायता से प्रसारित किये जायें तो यह कार्यक्रम साफ़, स्पष्ट और बेहतर गुणवत्ता के साथ जनता तक पहुँच सकेंगे। इसके साथ ही रेडियो एक बार फिर राष्ट्र निर्माण में कल्याणकारी भूमिका निभाते हुये, विज्ञान और तकनीक के बेहतर उदाहरण के रूप में उभर कर सामने आयेगा। अन्यथा, यह तकनीक किसी परमाणु बम से कम विनाशकारी नहीं साबित होगी, जो कि एक विचारहीन, विवेकहीन, और गैरज़िम्मेदार, अपंग पीढियों का निर्माण करेगी।
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-मेहरबान राठौर
प्रशंसनीय प्रयास! और कुछ कहना मेरे खयाल से जरूरी नहीं. इसके लिये एक काफी मेरी तरफ से! ... :-)
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