Thursday, December 15, 2011

आसक्ति और अनासक्ति के बीच बने राग का सूफ़ी: जगजीत सिंह


---मेहेर वान
          
 (हालांकि समय-यात्री आम तौर पर विज्ञान की दुनियाँ के सफ़र पर निकलता है, मगर उसे संगीत भी बहुत पसंद है| समय यात्री का एक हमसफ़र, एक दिन उससे अलविदा कह गया| उसी हमसफ़र को याद करते हुए- )
       




जगजीत सिंह की आवाज़ कब जिंदगी की हमसफ़र बन गयी, पता ही नहीं चला। कभी इसी आवाज़ को दादा के रेडियो और पापा के टेप-रिकॉर्डर पर सुना था। जब स्कूल में था तो जगजीत की ग़ज़लों के अर्थ अनबूझे से लगते थे, जिन्हें महसूस करने के लिये शायद न तो हमारे लिये उपयुक्त परिस्थितियाँ थी न हमारा संघर्ष उन भावनाओं और एहसासों से मेल खाता था। धीरे-धीरे समय के साथ अनुभव और एहसास बदलते गये, तो जगजीत सिंह की ग़ज़लें क़रीब आती गयीं। इसका कारण सिर्फ़ ग़ज़लों के बेहतरीन शब्द ही नहीं थे, जो मध्यवर्गीय संघर्ष और भावनाओं के ज्वार-भाटों को किनारा देते हुये प्रतीत होते थे। उन शब्दों को सुरों से सजाने वाली आवाज़ भी उतनी ही असरदार और अपनापे का एहसास कराने वाली थी कि जगजीत के चाहने वालों में उम्र का फ़र्क मिट जाता है। शायद यही कारण है कि, हर कोई अपने-अपने स्तर पर जगजीत की ग़ज़लों से जुड़ने का कारण तलाश लेता है। जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायिकी को उस समय एक नयी दिशा दी, जब ग़ज़लों के चाहने वाले लगातार कम हो रहे थे। ६० के दशक में ग़ज़ल गायिकी में शास्त्रीय संगीत का प्रभाव ज़्यादा था। उन्होंने ग़ज़ल गायिकी को परंपरागत संगीत और गायन से अलग करते हुये, उसमें पार्श्व संगीत का उपयुक्त समायोजन करते हुये नयी तरह से ग़ज़ल गाना शुरु किया। ग़ज़ल को सुगम और सुग्राह्य बनाने के लिये उन्होंने अपेक्षाकृत सरल शब्दों वाली रचनायें भी गायन के लिये चुनीं, उनका यह प्रयोग सफ़ल रहा और इससे आम लोगों में ग़ज़ल की पहुँच लगातार बढ़ती गयी।
             जगजीत सिंह का संगीत में बचपन से ही रुझान था और वे अपने पैतृक गाँव श्रीगंगा-नगर में पं०छगनलाल शर्मा से संगीत की शिक्षा लेना शुरु कर चुके थे। इसके बाद, महान गायक तानसेन के सैनिया घराना के गायक उस्ताद जमाल खान के यहाँ भी उन्होंने छः साल तक ठुमरी, खयाल ध्रुपद और भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की। संगीत की बारीकियाँ उन्होंने यहीं सीखीं। इसके साथ ही जगजीत सिंह ने इतिहास में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से परास्नातक की पढ़ाई भी की। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सूरजभान उनकी गायन प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ही जगजीत सिंह को गायन में अपना कैरियर बनाने कि लिये प्रेरित करते हुये बम्बई जाने की सलाह दी थी। जगजीत सिंह, अपने परिवार में जीत सिंह के नाम से जाने जाते थे, और गायिकी की शुरुआत में वे जगमोहन के नाम से गाते थे, बाद में वे अपना नाम बदल कर जगजीत सिंह के नाम से गाने लगे। बम्बई में फ़िल्मों में पार्श्व गायन्के लिये आये थे मगर गायन के क्षेत्र में उनकी शुरुआत विज्ञापनों में गाये जाने वाले “जिंगल्स” से हुयी। सुरेश अमीन की गुज़राती फ़िल्म “धरती ना छोरू” में उन्हें सबसे पहले ब्रेक मिला। विज्ञापनों में जिंगल्स गाते हुये उनकी भेंट चित्रा सिंह से हुयी, चित्रा सिंह भी गायन से जुड़ी हुयीं थीं। बाद में इस जोड़ी ने कई बेहतरीन दिल को छू लेने वाली सुरीली धुनों से सजी गज़लों से भारतीय संगीत से नवाज़ा।
            १९७० का दौर नूर जहाँ, मल्लिका पुखराज, बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, मेंहदी हसन, तलत मेहमूद, और बेग़म अख़्तर की ग़ज़ल गायिकी का दौर था। सन १९७६ में जगजीत सिंह ने अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत पर आधारित ग़ज़ल-संग्रह “द अन्फ़ोरगेटबल्स” के नाम से निकाला, जिसकी परंपरागत आलोचकों ने ग़ज़ल गायन की संरचना को बदलने के कारण काफ़ी निन्दा भी की। इसके बावजूद यह ग़ज़ल संग्रह अपनी धुनों के सुरीलेपन और जगजीत की ताज़ी मखमली आवाज के कारण जनता में काफ़ी पसन्द किया गया। इस संग्रह ने ग़ैर-फ़िल्मी संगीत के कैसेटों की बिक्री के कीर्तिमान स्थापित किये। १९८० के ही दशक में उनकी दो फ़िल्में आयीं- “अर्थ” और “साथ-साथ” जिसके गीतों से सुनने वालॊं को आज भी उतना ही प्यार है जितना कि उस दौर में था। इसके बाद जगजीत सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद उनके लगातार ग़ज़ल संग्रह आते रहे जिनमें उनका ग़ज़ल-चयन, धुन-निर्माण, और गायन शैली का संगम इतना बेमिसाल रहा कि संगीत के चाहने वालों ने उन्हें सर आँखों पर लिया। उनके प्रमुख संग्रहों में सर्च इनसाइट, मिराज, विज़न, कहकशाँ, लव इज़ ब्लाइंड, चिराग, मरासिम, फ़ेस टू फ़ेस, आइना, वादा, सहर , लम्हे और कोई बात चले आदि बेहद पसन्द किये गये। इनमें से १९९० के के पहले के लगभग सभी ग़ज़ल संग्रह उन्होंने चित्रा जी के साथ गाये। चित्रा जी के साथ उनका अंतिम संग्रह आया-  “समवन सम्व्हेयर” (कोई कहीं) और इसके बाद अपने इकलौते बेटे की असमय मौत के कारण चित्रा जी ने गायन से संन्यास ले लिया। इस के बाद लता मंगेशकर जी के साथ  उनका एक अल्बम आया “सजदा”, यह अल्बम बहुत ही सुरीली धुनों पर आधारित है और बहुत चर्चित भी हुआ। यहाँ उनके एक और अल्बम को याद करना ज़रूरी है। १९९० की शुरुआत में “बियॉन्ड टाइम” अल्बम आया जिसमें उन्होंने चित्रा जी के साथ गाया। यह अल्बम मल्टीट्रेक रिकॉर्डिंग तकनीक पर रिकॉर्ड हुआ था जो कि उस समय शायद भारतीय ग़ैर-फ़िल्मी गायकों की पहुँच से काफ़ी दूर था। इसमें प्रचलित सांगीतिक उपकरणॊं के सुरों के इतर भी कुछ आवाज़ें डाली गयीं थीं। जगजीत सिंह ने मिर्ज़ा ग़ालिब, फ़िराक़ गोरखपुरी, क़तील शिफ़ाई, गुलज़ार और निदा फ़ाज़ली तक के समय के शायरों के कलामों को अपनी आवाज़ दी। उनकी गायी, बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल “लगता नहीं है दिल मेरा..” काफ़ी चर्चित हुयी थी। जगजीत सिंह के पंजाबी लोक संगीत में योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता।
               जगजीत सिंह की गायन-शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने ग़ज़ल को आम लोगों के स्तर तक उतारा, लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने ग़ज़ल की गम्भीरता को वैसे ही बनाये रखा जैसे कि वह पहले थी। उन्होंने ग़ज़ल को सरल और सुगम और अधिक सुरीला तो बनाया ताकि जनता और बेहतरी से ग़ज़ल को समझ और महसूस कर सके, लेकिन ग़ज़ल गायिकी का सरलीकरण नहीं होने दिया। शायद यही प्रमुख कारण है जिसके लिये जगजीत सिंह लम्बे समय तक याद किये जायेंगे। ज़िंदगी की कठिन पहेली को समझने में आसक्ति और अनासक्ति के बीच बना जो सूफ़ियाना अंदाज़ होता है वह इस आवाज़ में न जाने कितनी रंगतों के साथ मुखर हो रहा था। “न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन..” जैसे शब्दों को हिन्दी फ़िल्मों के गानों में न जाने कितनी बार दोहराया गया है लेकिन जगजीत सिंह  की आवाज़ में ये गीत सुनने पर न जाने क्यों दिल की अन्तिम गहराइयों तक जाता है, दरअसल यह उनकी आवाज़ और उनके एहसास ही थी जो कि शब्दों को उनके बृहद अर्थ देते थे। यह बाद भी विचारणीय है कि तलत महमूद, किशोर कुमार, महेंद्र कपूर, हेमंत कुमार जैसे प्रभावशाली गायकों के होते हुये ७० और ८० के दशक में जगजीत का उदय कैसे हुआ? ये वह दौर था जब फ़िल्मी संगीत तेज़ी से बीट पर आधारित पश्चिमी संगीत से प्रभावित हो रहा था। गानों में शोर और कोलाहल से युक्त बीट वाला संगीत दिया जा रहा था। जगजीत सिंह की धुनों का सुरीलापन और माधुर्य तथा आवाज़ का मखमली अंदाज़ संगीत सुनने वालों को ऐसे समय में बेहतर विकल्प प्रदान करता था। जगजीत सिंह की आवाज़ शास्त्रीय और अर्द्ध-शास्त्रीय संगीत की परम्पराऒं से बंधी तो हुयी थी मगर अपनी मौलिकता भी लिये हुयी थी। उनकी सफ़लता का कारण शायद यही है कि उन्होंने शास्त्रीय और लोकप्रिय संगीत को बहुत ही करीने से साथ साधकर पेश किया। जगजीत सिंह ने ग़ज़लॊं का चयन भी बहुत बेहतर ढ़ंग के साथ किया। उनकी गायी ग़ज़लें हमेशा साधारण जीवन के संघर्षों के साथ-साथ चलती रहीं। शहरीकरण के दौर में गायी गयी ग़ज़ल ”ये शहर भी कितना अजीब है, न कोई दोस्त है न कोई रक़ीब है..” को याद कीजिये, ये वही समय था जब लोगों ने शहरों की तरफ़ भागना शुरु किया था। रोज़गार और नौकरी की तलाश में युवा शहरों की तरफ़ भाग रहे थे। ये युवा अपने घर-बार, गाँव, कस्बे छोड़कर शहरआकर आर्थिक रूप से अशक्त तो हो रहे थे लेकिन छूटते साँस्कृतिक संसार और बिखरते रिश्तों के अकेलेपन में ये ग़ज़लें उनकी तन्हाई और अकेलेपन में साथी बन रहीं थीं। “तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो…” जैसी ग़ज़लॊं को अपने निराले अंदाज़ और एहसासॊं के समन्दर से बनी मखमली आवाज़ से सजाकर उन्होंने लोगों के संघर्ष और विजय-पराजय के दुखों-सुखों को किनारा दिया। जगजीत सिंह गायकी के साथ हमेशा प्रयोग करते रहे। टीवी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब में नसीरुद्दीन शाह के बेहतरीन अभिनय और जगजीत की बेमिसाल गायकी से इस टीवी सीरियल में मिर्ज़ा ग़ालिब के चरित्र की जटिलतायें और बेहतर ढ़ंग से सामने आ सकीं। वस्तुतः, यह एक तरह की प्रयोगधर्मिता और नया करने की कोशिश भी थी जो जगजीत को अपने अन्य समकालीनों से अलग करती थी।   

         
         १० अक्टूबर, २०११ को यह महान संगीतज्ञ हमें छोड़कर विदा हो गया, लेकिन ज़िंदगी की घनी धूप में उनकी ग़ज़लें घना साया बनकर हमारे बीच हमेशा ज़िंदा रहेंगी। ये अलग बात है कि उनके जाने के बाद हमें ये आभास हो- “तुम  चले जाओगे तो हम सोचेंगे, हमने क्या खोया हमने क्या पाया…”।



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Friday, December 9, 2011

शून्य से शिखर तक के सफर का यात्री- हर गोविन्द खुराना


                                                                                                                -मेहेर बान
      बचपन में जीव विज्ञान की किताबों में जब कोशिकीय अंगों के बारे में शिक्षक पढ़ाया करते थे, तो तमाम आविष्कारकों की सूची में सिर्फ़ एक ही नाम होता था जो कुछ अपना सा लगता था। परीक्षा में लिखने के लिये, इस नाम को कभी रटने की ज़रूरत नहीं पड़ी। हम तो बस इतने में ही खुश रहा करते थे कि विज्ञान के अटपटे नामों के अथाह समन्दर में से एक नाम अपना सा है, और वो नाम एक बहुत बड़े वैज्ञानिक का है। उस समय अध्यापक ने बताया था कि गिने-चुने भारतीय वैज्ञानिकों में से एक हर गोविन्द खुराना भी हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ है। तब हमें यह अन्दाज़ा भी नहीं था कि नोबेल पुरस्कार कितना बड़ा होता है, हमारे लिये तो यही बहुत आश्चर्य कई बात थी कि जो कोशिका हमें दिखाई तक नहीं देती, उसके अंगों के काम करने की प्रक्रिया के बारे में इतना कुछ ये वैज्ञानिक कैसे जान लेते थे। बहुत बाद में विज्ञान की पढ़ाई करने पर तमाम संशयों के धुन्ध में कुछ सत्य दिखाई देने लगे, तो हर गोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिकों का महत्व बेहतर समझ आने लगा। प्रो.हर गोविन्द खुराना ने कोशिकाओं के अन्दर आनुवाँशिक सूचनाऒं के प्रोटीन में पहुँचने की प्रक्रिया को पहली बार समझाया था। इसी प्रक्रिया के ज़रिये जीवित कोशिकाओं में अन्य प्रक्रियायें सुचारु रुप से सम्पन्न होती हैं। इस कार्य के लिये उन्हें शरीर क्रिया विज्ञान के क्षेत्र में दो अन्य वैज्ञानिकों के साथ नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। विज्ञान के क्षेत्र में वे प्रो.सी.वी.रमन और प्रो.चन्द्रशेखर के बाद भारतीय मूल के तीसरे वैज्ञानिक थे, जिन्हें अपने आविष्कारों के लिये नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
       प्रो. हर गोविंद खुराना का सफ़र अविभाजित भारत के पंजाब (जो कि अब पाकिस्तान में है) के एक छोटे से गाँव रायपुर से शुरु हुआ और दुनियाँ के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक संस्थानों में से एक मेसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेकनोलॉजी, अमेरिका तक पहुँचा। हर गोविन्द खुराना की वास्तविक जन्मतिथि मालूम नहीं है, स्कूल में नाम दर्ज़ कराते समय 9 जनवरी 1922 की तिथि उनके जन्मदिन के रुप में लिख दी गयी थी। वो चार भाइयों और एक बहन में सबसे छोटे थे। बताते हैं कि उस समय इस गॉव में सिर्फ़ डॉ.हर गोविन्द का परिवार ही साक्षर था। वर्तमान पश्चिमी पंजाब के मुल्तान (पाकिस्तान) में डी.ए.वी. कॉलेज़ से हाईस्कूल की पढ़ाई करने के बाद, उन्होनें पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से बी.एससी. और एम.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की। बाद में अपने संस्मरणों में, वे अपने प्रारम्भिक शिक्षकों में से रतन लाल और महान सिंह को अक्सर अपने शैक्षिक जीवन के प्रकाश स्त्रोतों की तरह याद करते। 1945 में उन्हें इंग्लैंड में पढाई करने के लिये सरकारी वज़ीफ़ा प्राप्त हो गया। डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के लिये वे इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय चले गये। वहाँ उन्होंने  प्रसिद्ध वैज्ञानिक रोज़र एस.बीर के निर्देशन में शोध कार्य शुरु किया। 1948-1949 में पोस्ट-डॉक्टोरल के लिये वे स्विट्ज़रलैंड आ गये जहाँ उन्होंने प्रोफ़ेसर व्लादिमीर प्रेलॉग के साथ काम किया, यही वो जगह थी जहाँ उन्होंने विज्ञान के प्रति नया नज़रिया मिला, जिसने उन्हें पूरा जीवन बिना थके हुये लगातार विज्ञान की सेवा की। 
         सन 1949 में कुछ समय के लिये वे भारत आये और 1950 में वे फिर सरकारी वज़ीफ़ा मिलने पर वापस इंग्लैंड चले गये, जहाँ उन्होंने कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय में प्रो. ए.आर. टॉड के साथ काम किया, यहीं पर उनकी रुचि न्यूक्लियिक अम्लों और प्रोटीन्स में उत्पन्न हुयी। 1952 में उन्हें काउंसिल ऑफ़ ब्रिटिश कोलम्बिया, कनाडा से नौकरी का प्रस्ताव आया और वे कनाडा चले आये। 1952 में ही उन्होंने अपने स्विटज़रलैंड के समय की दोस्त ’एस्थर सिब्लर’ से शादी की। तत्पश्चात 1960 में वे आगे के शोध कार्य के लिये विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, अमेरिका चले आये। यहीं इंस्टीच्यूट ऑफ़ एन्जाइम्स रिसर्च में किये गये शोध कार्य के लिये उन्हें बाद में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली और 1968 में उन्हें शरीर क्रिया विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। प्रॊ. खुराना का शोधकार्य कभी बाधित नहीं हुआ, वे 1970 में मेसाच्युसेट्स इंस्टीच्य़ूट ऑफ़ टेकनोलॉजी में सम्मानित ’अल्फ़्रेड स्लोन प्रोफ़ेसर ऑफ़ केमिस्ट्री एंड बायोलॉजी’ नियुक्त किये गये। यहाँ पर शोध कार्य करते हुये प्रो. खुराना ने आनुवाँशिकी से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में कार्य किया। सन 2007 में वे सेवानिवृत्त हो गये। वर्तमान में वे एम.आई.टी में एमेरिटस प्रोफ़ेसर थे। 10 नवंबर 2011 को मेसाच्युसेट्स इंन्स्टीच्यूट ऑफ़ टेकनोलॉजी ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि रसायन शास्त्र और शरीर क्रिया विज्ञान के शिखरों में से एक प्रो. हर गोविन्द खुराना 9 नवंबर 2011, को हमें हमेशा के लिये छोड़कर चले गये। वे 89 वर्ष के थे और अंतिम समय तक छात्रों शोधकर्त्ताओं से लगातार मिलते रहे और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया से लगातार जुड़े रहे। 
         प्रो. हर गोविन्द खुराना का सफ़र शून्य से शिखर तक का सफ़र कहा जा सकता है। ग़रीब परिवार में जन्मे हर गोविन्द ने अपने जिज्ञासु दिमाग की भूख मिटाने के लिये आजीवन संघर्ष किया और इसी संघर्ष से जीवन और जीवन के सूक्षतम नींव के पत्थर कोशिका और उसके अंगों और उपअंगों की क्रियाविधि के बारे में वैश्विक वैज्ञानिक परिवार और मानव की समझदारी विकसित हुई। 1953 में वॉटसन और क्रिक ने डी.एन.ए. के दोहरी कुंडली जैसी संरचना के बारे में खोज की थी जिसके लिये वाटसन और क्रिक को भी नोबेल पुरस्कार मिला, लेकिन वे डी.एन.ए. से प्रोटीन की निर्माण प्रक्रिया और अन्य आनुवाँशिक और शारीरिक क्रियाविधियों में इसकी हिस्सेदारी के बारे में नहीं जानते थे। नीरेनबर्ग और खुराना ने पहली बार स्पष्ट किया कि कैसे न्यूक्लियोटाइड्स से बनी संरचना अमीनॊ अम्लों का निर्माण करते हैं जो कि  प्रोटीन का एक हिस्सा हैं। रसायनिक अभिक्रिया के ज़रिये प्रो.खुराना ने आर.एन.ए. में आनुवाँशिक कोडों की संरचना को स्पष्ट किया। नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने शोध कार्य सतत जारी रखा। 
       नोबेल मिलने के चार साल बाद उन्हें पूर्णतः कृत्रिम जीन का रसायनिक विधियों द्वारा निर्माण करने में सफ़लता प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने कई जीनों का कृत्रिम तरीकों से निर्माण किया जिनमें से दृष्टिदॊष से सम्बन्धित जीन रोडोस्पिन का कृत्रिम निर्माण प्रमुख था। इन खोजों का मूलभूत विज्ञान और औद्योगिक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। आनुवांशिकी में प्रो.खुराना की खोजें आज भी महत्वपूर्ण हैं, इनका इस्तेमाल मूलभूत विज्ञान से लेकर औद्योगिक क्षेत्र में लगातार हो रहा है। प्रो. खुराना एक सफ़ल शिक्षक भी थे, वे हमेशा छात्रों से घिरे रहते। उनके एक शोध छात्र माइकल स्मिथ को भी 1993  में डी.एन.ए. में फ़ेरबदल करने की तकनीक खोजने के लिये नोबेल पुरस्कार मिला है। विज्ञान और तकनीक के भविष्य और अनुप्रयोगों के सम्बन्ध में हमेशा गम्भीर रहते थे। उनके छात्र उन्हें एक उत्कृष्ट शिक्षक और हमेशा बेहतर शोध करने के लिये उत्साहवर्धन करने वाले अच्छे इंसान के रुप में याद करते है। समकालीन जनमत सरल व्यक्तित्व वाले महान वैज्ञानिक को श्रद्धाँजलि देते हुये, विज्ञान और तकनीक का आमजन के हित में इस्तेमाल के प्रो.खुराना के सपनों को याद करता है।
        समय के इस मोड़ पर प्रो. हरगोविन्द खुराना जैसे वैज्ञानिक को सिर्फ़ श्रद्धाँजलि देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है। इस पड़ाव पर थोड़ा ठहरकर यह भी सोचने की ज़रूरत है कि आज से 66 वर्ष पहले वे 1945 में आगे की पढाई के लिये इंग्लैण्ड गये थे, उस समय भारत में न तो बहुत अच्छे वैज्ञानिक शोध संस्थान थे न ही विभिन्न क्षेत्रों के सर्वोत्कृट वैज्ञानिक। ऐसी परिस्थितिओं में देश से अनगिनत मेधावी देश छोड़कर पढ़ाई करने विदेश गये और देश में संसाधनों के अभाव के कारण पुनः देश नहीं आये। देश की आज़ादी के छः दशकों के लम्बे समय के बाद आज ये विचारणीय प्रश्न है कि क्या आज भी हम पुरानी परिस्थितियाँ बदल पाये हैं? या आज भी हम देश में एक ऐसे संस्थान् की कल्पना मात्र कर रहे हैं जिसमें विश्व स्तर पर प्रभावित करने वाला शोध कार्य हो जिससे नोबेल जैसे पुरस्कार भी अपना गौरव बढ़ा सकें। आज़ादी के बाद, विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में से किसी एक में भी हम नोबेल पुरस्कार पाने में असफ़ल हुये हैं। ऐसे कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारे देश की प्रतिभायें आज भी इन लक्ष्यों को दूर से देख पाने मात्र को मजबूर हैं।
प्रो. हर गोविन्द खुराना को श्रद्धाँजलि देने के साथ इस पर भी वैश्विक स्तर पर विचार होना आवश्यक है कि आज जब दुनियाँ के लगभग सभी देश विज्ञान और तकनीक के हर एक  खोज और परिणाम में सैनिक उपकरण और युद्ध में उपयोग की सम्भावनायें देख रहे हैं, ऐसी परिस्थितियों में अमेरिका में रहते हुये भी जहाँ की अर्थव्यवस्था ही युद्धक उपकरण बनाने के व्यापर से संचालित होती है, प्रो. हर गोविन्द खुराना ने अपनी आनुवाँशिकता और जैविक क्षेत्र की खोजों को सैनिक और रक्षा क्षेत्रों में उपयोग होने से बचाये रखा। वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय के लिये यह एक चुनौती है जिसका सामना उन्हें स्वयं को वैज्ञानिक चुनौतियों से निबटने के साथ-साथ समानान्तर करने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा।
        प्रो. हर गोविन्द खुराना के गुज़र जाने की खबर भारतीय मीडिया में तीन दिन बाद आयी। वह मीडिया जो स्वय़ं को सबसे तेज़ और समय से आगे का मीडिया कहा करता है, इस मीडिया को इस महान वैज्ञानिक के छोड़कर चले जाने की खबर से कॊई वास्ता नहीं दिखा। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि तमाम दोयम दर्ज़े  के मुद्दों की खबरों और बहसों से भारतीय मीडिया को फ़ुरसत नहीं थी।
      सच्चे अर्थों में इस महान वैज्ञानिक को श्रद्धाँजलि देना इसी तरह से संभव होगा जब हम उसके सपनॊं को पूरा करने के लिये स्वयं को तैयार कर पायेंगे। प्रो. हरगोविन्द खुराना अपनी महान खोजों के जरिये हमारे दिमागों में हमेशा रहेंगे।