( समय-यात्रा करते वक्त समययात्री अक्सर कुछ ना कुछ सोचना शुरू कर देता है| पता नहीं क्यों? वह खुद नहीं जानता..... लेकिन तमाम साथ वालों के यह कहने के बावजूद कि धरती पर दूसरों के लिए सोचना या तो गुनाह है या पोलिटिक्स, वह सोचता है........ )
प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन ने कहा था, “शिक्षा का उद्देश्य किसी विषय में विशेषज्ञता हासिल किये गये ग़ुलाम पैदा करना नहीं होता, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानवता और देश-काल के प्रति ज़िम्मेदार, नैतिक मूल्यों से लबरेज़ इंसान पैदा करना होता है”। किसी अन्य विद्वान ने भी कहा है, “शिक्षा वह बचा हुआ ज्ञान होता है, जो कि अपने स्कूलों में सीखे गये समस्त ज्ञान के भूल जाने के बाद बचता है”। स्कूल हमेशा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ज्ञान की संपदा हस्तांतरित करने के सशक्त और महत्वपूर्ण केन्द्र माने जाते हैं। यह वर्तमान में और भी महत्वपूर्ण संस्थान हो चुके हैं, ख़ास तौर पर जब वैश्वीकरण यानि ग्लोबलाइजेशन के दौर में आर्थिक और सामाजिक बदलाव इस स्थिति में आ चुके हैं कि किसी भी देश की परम्परायें, लोककलायें , भाषायें और अन्य परम्परागत विशेषतायें ख़तरे में हैं।
मानवता को बचाये रखने और अपनी परम्पराऒं से अच्छा ग्रहण करते रहने की प्रक्रिया में शैक्षिक संस्थायें और महत्वपूर्ण हो जातीं हैं। ये सवाल पूरी दुनियाँ की शैक्षिक संस्थाओं के समक्ष है कि क्या वे संस्थायें अपनी पुरानी पीढ़ियों से मिले सकारात्मक और नैतिक ज्ञान को अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों में हस्तान्तरित कर पा रहीं हैं? चूंकि पश्चिमी देशों में नवजागरण हमसे पहले आया, और वहाँ विकास की आँधी हमारे यहाँ से पहले आयी, यह समस्या पश्चिमी देशों में हमसे पहले दृष्टिगोचर हुयी। यहाँ हमसे भी भूल हुयी कि हम इस आँधी से खुद को बचा भी नहीं पाये। मुझे लगता है, कि स्थिति तब से अत्यन्त गम्भीर हुयी है, जब से शिक्षा को एक उद्योग के रूप में देखा जाने लगा।
भारत में इसकी शुरुआत सन 1986 से हुयी, जब भारत में शिक्षा के निजीकरण के लिये संसद ने शिक्षा के दरवाजे खोल दिये। यहाँ यह बात भी नहीं भूलनी चाहिये कि शिक्षा के निजीकरण से वहाँ भी स्कूल खुले जहाँ सरकार तुरन्त स्कूल नहीं खोल सकती थी, मगर इस तरह शिक्षा से पैसे कमाने की प्रथा भी शुरु हुयी। इस प्रक्रिया में कुछ निजी शैक्षिक संस्थानों ने लगन और मेहनत से बेहतर शिक्षा प्रदान की, इसके तमाम फायदों सहित कुछ गम्भीर नुकसान भी हुये। जिनमें से प्रमुख था, सरकारी संस्थाओं में शिक्षा के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव कम होना। सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के नुमाइंदों ने ये सोचना शुरु कर दिया कि अच्छी शिक्षा निजी स्कूल देते हैं, अब हमें आराम करना चाहिये, या जिन्हें अच्छी शिक्षा चाहिये वे निजी स्कूलों में दाखिला लें। इस तरह शिक्षा को दोगुना नुकसान हुआ। जहाँ एक तरफ़ सरकारी शैक्षिक संस्थाओं ने सामाजिक ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया, वहीं दूसरी तरफ़ निजी शैक्षिक संस्थाऒं का प्रमुख उद्देश्य उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान करना था ही नहीं। उनका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना था, चूंकि निजी शैक्षिक संस्थान शिक्षा के उद्योगीकरण के फलस्वरूप अस्तित्व में आये थे। इसके नुकसान सभी देशों में विकास प्रक्रिया के अलग अलग चरणों में दृष्टिगोचर हुये। यहाँ एक बात और याद रखनी होगी कि इस प्रक्रिया में मिशनरियों और समाज सेवी संस्थाओं कि द्वारा संचालित स्कूलों ने अपने स्तर को बचाये रखा। लेकिन ये भी सत्य है कि ये समाजसेवी संस्थायें और मिशनरियाँ पैसे कमाने के लिये स्कूल नहीं चला रहीं थीं, उनके शैक्षिक संस्थायें संचालित करने के पीछे उनके अपने उद्देश्य थे।
पिछले कुछ सालों के दौरान, मुझे कुछ महत्वपूर्ण हस्तियों से मिलने और उनसे तमाम मुद्दॊं पर बातचीत करने का मौका मिला, इस मुद्दों में शिक्षा का मुद्दा भी महत्वपूर्ण मुद्दा रहा, जिसपर कई बार बहसें लम्बी भी चलीं। आकाशवाणी, इलाहाबाद में संविदा आधारित उद्घोषक के रूप में काम करते हुये मुझे संचार प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के वैश्विक व्यक्तित्व एन.आर.नारायणमूर्ती से बातचीत करने का मौका मिला, जो संचार प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित कम्पनी “इन्फ़ोसिस” के संस्थापक सदस्य और पूर्व चेयरमेन भी हैं। वे कर्नाटक के एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे थे, उनका परिवार बड़ा था। ग़रीब परिवार में पले बढ़े होने के बावजूद उन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत के दम पर “इन्फ़ोसिस” जैसी कम्पनी की स्थापना की, जो कि भारत की सबसे बड़ी कम्पनियों में से एक है। शिक्षा के सम्बन्ध में मुझे उनके विचारों ने प्रभावित किया। उनका मानना था कि, “भारत में खास तौर से शिक्षा का मतलब डिग्रियों के तमगे लगाना हो गया है। उन्होंने कहा कि छात्रों का लक्ष्य स्कूलों, कॉलेजों में ज्ञान प्राप्त करना होना चाहिये न कि अच्छे अंक पाना। सिर्फ़ इतना ही पर्याप्त नहीं है, छात्रों को सोचना चाहिये कि जो भी भौतिकी, रसायन, समाजशास्त्र वे अपनी कक्षा में पढ़ रहे हैं, उस विषय का उपयोग समाज की समस्याओं को दूर करने में कैसे किया जा सकता है? और इस दिशा में प्रयास करने चाहिये”। शिक्षा प्राप्त करने का यह नज़रिया काफ़ी महत्वपूर्ण है। क्या सचमुच हमारे छात्र ऐसा सोचते हैं? मेरी समझ में ऐसा देश के सर्वोच्च् संस्थान के छात्र भी शायद नहीं सोचते हैं। वे सिर्फ़ ऐसे कोर्स करना चाहते हैं जिससे एक अच्छी रकम वाला वेतन दिलाने वाली नौकरी मिल जाये। अगर वास्तव में युवाऒं को देश का नाम रोशन करना है तो नारायणमूर्ती जी के शब्द उनके लिये महत्वपूर्ण हैं। चेन्नई में सम्पन्न हुये एक वैज्ञानिक सम्मेलन में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक “प्रो. रिचर्ड आर. अर्न्स्ट” से बातचीत करने का मौका मिला। उनका साक्षात्कार लेते वक़्त और साक्षात्कार के बाद अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। उनका कहना था, “हम में से हर एक को यह सोचना चाहिये कि हमने अपनी पुरानी पीढ़ियों से कितना कुछ लिया, मगर हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों को क्या देकर जा रहे हैं? ग्लोबल वार्मिंग, आतंकवाद, आर्थिक अस्थिरता…..क्या हमारे पास आगामी पीढ़ियों को देने के लिये कुछ नहीं है?...ऐसे में शिक्षा, शिक्षकों और छात्रों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। हम सबको, खास तौर से समझदारों, बुद्धिजीवियों, और सक्षम लोगों को स्वयं से ऊपर उठ कर सोचना शुरु करना पड़ेगा। हमें अपने वेतन, अपने स्तर आदि से ऊपर उठकर समाज, देश और विश्व के बारे में सोचना चाहिये, तभी एक सुरक्षित भविष्य की आशा की जा सकती है। वर्तमान में युवाओं पर यह ऎतिहासिक ज़िम्मेदारी है”।
विचारों की परिधि में स्वयं को रखते हुये क्या हम इन ज़िम्मेदारियों निभाने के लिये स्वयं को तैयार कर पाये हैं? अगर देखा जाये तो कुछ हद तक ऐसा हो रहा है, शुरुआतें हो चुकी हैं। इस तरह की कुछ समस्यायें किसी एक ख़ास स्थान विशेष की समस्यायें नहीं हैं बल्कि इन समस्याओं का वैश्विक स्तर पर हल निकाले जाने की आवश्यक्ता है।
-मेहेर वान
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