Friday, December 14, 2012

2012: अफ़वाहें और वास्तविकता


-Meher Wan
      हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। सूचना संचार क्रान्ति के समय में हर बात वैश्विक हो जाने की फ़िराक में है। कुछ ही सेकेन्डों में सूचनायें दुनिंयाँ के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उछलकूद करती रहती हैं। इसी उहापोह के बीच बाज़ार और नवउपनिवेशवाद के विकृत चेहरे बार-बार नये नये स्वरूपों में सामने आ रहे हैं। कुछ समय तक जब वैलेन्टाइन्स डे पर बाज़ार सजता था तो अफ़सोस के साथ कहा जाता है कि प्रेम दुकानों पर आ गया। लेकिन अब सिर्फ़ प्रेम ही नहीं है जिसका इस्तेमाल बाज़ार अपने विस्तार या अस्तित्व को बचाने के लिये कर रहा है। इस बीच में बाज़ार में “भय” का इस्तेमाल भी ज़ोर शोर से हो रहा है? विज्ञापनों में डॉक्टरों के कपड़े पहने सुन्दर मॉडल आपसे प्रश्न पूछते हैं आपके पानी कितना साफ़ है? फिर बहुत सारे लिज़लिज़े कीड़े आपकों टीवी स्क्रीन पर नज़र आते हैं। इसके साथ ही पीछे से दावों की झडी लग जाती है कि फलाँ उत्पाद इन सब कीड़ों को हमेशा के लिये खत्म कर देता है इत्यादि इत्यादि। यहाँ जो कीड़े आप स्क्रीन पर देखते हैं वह विज्ञापन बनाने वालों की कल्पना का परिणाम होते हैं ताकि आप फलाँ टूथपेस्ट ही खरीदें। आप डर जायें और बाज़ार आपके डर को अपने मुनाफ़े में बदल दे। इस तरह की बहुत सामग्री का इस्तेमाल तमाम उत्पादों को बेचने के लिये हो रहा है, जो कि सिर्फ़ मानव में डर उत्पन्न करके उत्पाद बेचने के तरीकों की श्रेणी में रखी जा सकती है। बाज़ार द्वारा प्रायोजित इस तरह की कुटिल तरीकों की ओर अक्सर हम ध्यान नहीं देते।
      कुछ महीनों से एक बार फिर मानवीय भाव “डर”  को बाज़ार ने अपने कुटिल हितों में इस्तेमाल करने की कोशिश की है। सन २०१२ में प्रवेश करते ही यह अटकलें लगाई जाने लगीं थीं कि इस वर्ष धरती पर महाप्रलय आने वाला है। प्रलय या विनाश से आधुनिक से लेकर प्राचीन सभ्यतायें भी डरतीं रहीं हैं और इस डर का इस्तेमाल समय समय पर सत्ता और अन्य प्रभावशाली गुट अपने हितों के लिये करते रहे हैं। प्राचीन सभ्यताओं में तूफ़ान, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से डर कर मानव ने अपने अपने ईश्वरों की परिकल्पना की। प्राकृतिक आपदाओं से बचाने वाले ईश्वरों के अस्तित्व का प्रमाण लगभग हर सभ्यता में मिलता है, क्योंकि उस समय यही बाढ़ और तूफ़ान जैसी आपदायें भी भारी नुकसान का कारण बनतीं थीं। फिर समय के साथ इन ईश्वरों की शक्ति लगातार बढती गयी। उस समय के ईश्वर सिर्फ़ तूफ़ान से बचाते थे और आज के नाभिकीय हमले से भी बचाने की कुव्वत रखते हैं। धीरे धीरे विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ सूचना संचार क्रान्ति तक हम आ पहुंचे हैं मगर तकनीक के विकास के साथ तमाम नकारात्मक प्रभावों ने भी प्रगति की है।सामंती युग में लोग अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिये आम जनता में तमाम डर उत्पन्न करके अपनी सत्ता कायम रखते थे। समय के साथ आज डर का और बदतर तरीके से इस्तेमाल बाज़ार कर रहा है। एक तरफ़ दाम बढ़ने के डर को विज्ञापनों के ज़रिये इस्तेमाल करके लोगों को जरूरत से ज़्यादा खरीदारी करने को मजबूर किया जाता है, तो दूसरी तरफ़ अमेरिका जैसा देश जिसकी अर्थव्यवस्था सिर्फ़ युद्धक सामग्री के निर्माण पर आधारित है, युद्ध के डर को उत्पन्न करके भारत जैसे विकासशील देशों को लडाकू विमान बेचता रहता है।
       बाज़ार के लिये “डर” के इस्तेमाल का सबसे बदतर उदाहरण है “२०१२ : तथाकथित महाप्रलय प्रकरण”। ऐसा पिछले कई महीनों से कहा जा रहा था कि २१ दिसम्बर २०१२ को  महाप्रलय आयेगा और उस दिन पूरी दुनियाँ नष्ट हो जायेगी। लोगों को इस बात से रूबरू कराने के लिये तमाम वेबसाईटों का निर्माण किया गया। इंटरनेट पर किताबें बेचने वाली वेबसाइट “अमेजन” पर २०१२ तथाकथित महाप्रलय से सम्बन्धित १०० से भी अधिक किताबें मौजूद हैं जिन्हें अलग अलग लेखकों ने लिखा है। यह भी कमाल है कि इस तथाकथित महाप्रलय को सही साबित करने के लिये कई विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्तों का सहारा लिया गया।
        इस कहानी की शुरुआत “जेनेरिया सितचिन” नामक महाशय के उन दावों से हुयी, जिनमें यह कहा गया था कि यह दुनियाँ दिसम्बर २०१२ में खत्म हो जायेगी। ये दावे वह मेसोपोटामिया की सभ्यता के कैलेन्डर के आधार पर कर रहे थे। यह तथ्य सर्वविदित है कि प्राचीन सभ्यतायें अपने विकास के क्रम में समय की गति को पहचान रहीं थीं और समय के साथ प्रकाश, मौसम आदि में आ रहे आवर्ती बदलावों के आधार पर दिन और वर्ष आदि के निर्धारण करने के प्रयासों से जूझ रहीं थीं। इसी प्रक्रिया में मेसोपोटामिया की सभ्यता में भी लोगों ने एक कैलेन्डर बनाया था। ऐसा माना जाता है कि इस मेसोपोटामियन कैलेण्डर की अन्तिम तिथि २१ दिसम्बर २०१२ है। यह कैलेन्डर लगभग 5126 वर्ष पहले बनाया गया था। इसकी प्रथम तिथि अंग्रेज़ी कैलेन्डर के हिसाब से 11 अगस्त 3114 ईसा पूर्व आँकी जाती है। मेसोपोटामिया सभ्यता के लोगों के समय अंकगणित का विकास बहुत अधिक नहीं हुआ था। उनके गणना करने के तरीके बहुत जटिल और लम्बे हुआ करते थे। इसके बावजूद उन लोगों ने 5126 वर्ष के लम्बे अंतराल की गणना की थी। जैसा कि बताया जा चुका है कि इस कैलेण्डर का समय २१ दिसम्बर २०१२ को खत्म हो रहा है, इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये जेनेरिया सितचिन ने दावा कर दिया कि पृथ्वी पर जीवन इस दिन खत्म हो जायेगा। इसके पीछे यह कारण बताया गया कि चूंकि मेसोपोटामियन सभ्यता के लोग बहुत विद्वान थे और वे यह जानते थे कि पृथ्वी पर जीवन इतने अंतराल के बाद खत्म हो जायेगा, इसी कारण से उन्होंने अपने कैलेंडर में आगे के समय की गणना नहीं की। जबकि असलियत यह थी कि मेसोपोटामियन लोगों ने बहुत मुश्किल से इस चक्र तक के समय की गणना की थी मेसोपोटामियन लोगों के लिये इससे आगे की गणना करना तत्कालीन गणितीय ज्ञान के सहारे बहुत कठिनतम कार्य था। चूंकि यह तय कर लिया गया था कि इस दिन पृथ्वी पर जीवन को खत्म होना है तो किसी महाप्रलय की कल्पना की गयी क्योंकि पृथ्वी बहुत विशाल पिण्ड है और कोई सामान्य प्राकृतिक आपदा इस पर जीवन को पूर्ण रूप से खत्म नहीं कर सकती। इस तरह सवाल यह था कि अगर पृथ्वी पर जीवन खत्म होगा तो कैसे होगा? क्योंकि सितचिन और उनके समर्थकों की नज़र में मेसोपोटामिया के लोग गलत नहीं हो सकते थे। इस परिकल्पित महाप्रलय को सम्भव बनाने के लिये कई वैज्ञानिक सिद्धान्तों का भी सहारा लिया गया। हॉलीवुड सिनेमा ने इसे बाज़ार के तौर पर देखा। हॉलीवुड के बाज़ार विश्लेषक यह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि इस तरह के विषयों पर बनी फिल्में बहुत अच्छा व्यापार करतीं हैं क्योंकि जनता अपने भविष्य के बारे में जानना चाहती है खास तौर पर तब जब वह उनकी ज़िन्दगी और मौत से जुड़ा हो। सही समय पर निर्देशक “रोनाल्ड एमेरिच” ने इस विषय पर एक फिल्म बनायी जिसका नाम था “2012”| इस फिल्म ने आग में घी का काम किया। “रोनाल्ड एमेरिच” बहुत चालाक निर्देशक हैं। उन्होंने विश्व भर में फ़िल्म के दर्शकों की संख्या बटोरने के लिये भारत की कुछ पृष्ठभूमि और यहाँ के वैज्ञानिक को फिल्म की स्क्रिप्ट में शामिल किया क्योंकि भारत और भारत के आसपास के देशों में हॉलीवुड का व्यापार दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। फिल्म में भारतीय पृष्ठभूमि और पात्र के इस्तेमाल से तीसरी दुनिया के देशों में इस फिल्म को बड़ी संख्या में दर्शक-वर्ग मिला। इस तरह ज़िंदगी और मौत के डर को इस फिल्म ने बहुत अच्छी तरह से कैश कराया। इससे “२०१२” में होने वाले परिकल्पित महा विनाश को पूरी दुनियां में आसानी से फ़ैलाया गया। इसके बाद इस घटना को ढ़ाल बनाकर समूचे विश्व के चालाक बाज़ार ने कमाने की तमाम तरकीबें खोज निकालीं। तमाम ज्योतिषियों का धंधा चल निकला। कई कम्पनियों ने ऐसी वेबसाइटें बनायीं जिनमें दुनिंया के अन्तिम दिन को अपनी ज़िंदगी की सारी कमाई लगाकर एक साथ किसी खास स्थान पर खास तरह से मनाने की फ़रमाइश की। कई छात्रों ने पढ़ना और लोगों ने काम करना यह कहकर बन्द कर दिया कि जब दिसम्बर २०१२ में सब खत्म हो ही जाना है तो जीवन को अपने तरह से जिया जाये। लोग अपनी अन्तिम इच्छायें पूरा करना चाह रहे थे। बाज़ार इसी बीच अपना व्यापार कर रहा था।
          पृथ्वी पर जीवन के खात्मे की परिकल्पना पर तथ्यों का मुलम्मा चढ़ाना ज़रूरी था ताकि जनता विश्वास कर सके। इस लिये “जेनेरिया सितचिन” ने मेसोपोटामियन सभ्यता का ही सहारा लिया। मेसोपोटामियन सभ्यता में एक “निबिरू” नामक आकाशीय पिण्ड का ब्यौरा मिलता है। कुछ लोग इसे “बारहवाँ ग्रह” कहकर भी पुकारते हैं। सितचिन और तथाकथित महाप्रलय के समर्थक कहते हैं कि यह एक ऐसा ग्रह है जिसके बारे में मेसोपोटामियन लोगों को खासी जानकारी थी। वे जानते थे कि यह ग्रह सूरज से बहुत दूर है और सूरज के चारों ओर चक्कर लगाने में इसे कई हज़ार वर्ष लग जाते हैं। इस तरह इन लोगों ने अपनी बुद्धि से यह गणना की थी कि सन २०१२ में यह ग्रह पुनः सूरज के नज़दीक से गुजरेगा और इसी क्रम में यह पृथ्वी से टकरा कर पृथ्वी को नष्ट कर देगा। अब सवाल यह उठता है कि सूरज के ग्रह सूरज के चारों ओर परवलयाकार पथ में चक्कर लगाते हैं। मेसोपोटामियन सभ्यता के लोग क्या इस बारहवें ग्रह के रास्ते के बारे में और इसके साथ साथ पृथ्वी के रास्ते का आंकलन कई हज़ार वर्ष बाद के दिन तक करने में सक्षम थे? अगर थे तो मेसोपोटामिया की खुदाई में क्या इस सभ्यता के इतने सक्षम होने के प्रमाण मिलते हैं? मेसोपोटामियन सभ्यता  पर अध्य्यन करने वाले इतिहास शास्त्री और मानव विज्ञानियों में से किसी ने मेसोपोटामियन सभ्यता के इस स्तर के होने की बात आज तक नहीं कही न ही उन्हें इस सभ्यता के लोगों के ज्ञान के इस स्तर के होने के प्रमाण मिले। यह बात सत्य है कि इस सभ्यता के लोगों को गणित का मूलभूत ज्ञान हो चला था। यहाँ एक बात और है कि ऐसा पिण्ड क्या वास्तव में अस्तित्व में हो सकता है जो कि आकार में ग्रहों के बराबर हो और वह सूरज से इतना दूर हो कि उसे सूरज का एक पूरा चक्कर लगाने में कै हजार वर्ष लगें? भौतिकी के नियमों के आधार पर इसकी सम्भावना शून्य के बराबर है। जब इस परिकल्पना की धज्जियाँ उडने लगीं तो कुछ लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया कि दिसम्बर २०१२ में पृथ्वी से टकराकर पृथ्वी को नष्ट करने वाला पिण्ड “निबिरू ग्रह” न होकर कोई उल्का पिण्ड होगा। इस पर एक वर्ष पहले ही खगोल वैज्ञानिकों ने अपनी राय देना शुरु कर दिया था कि वर्तमान में ऐसा कोई ज्ञात उल्का पिंड नहीं है जो कि दिसम्बर में पृथ्वी से टकराये। वर्तमान में हज़ारों खगोल विज्ञानी  सैकड़ों आधुनिक टेलेस्कोपों के साथ आकाशीय पिण्डों पर नजर लगाये रहते हैं। दुनियाँ भर में किसी भी खगोल शास्त्री ने इस तरह के खगोल पिण्ड के बारे में नहीं बताया न की किसी वैज्ञानिक शोध इस सम्बन्ध में छपा। ऐसे खगोलीय पिण्ड खगोल शास्त्रियों को लिये बहुत महत्वपूर्ण होते हैं क्योकि इस तरह के खतरनाक पिंड के बारे में जानकारी देने बाला वैज्ञानिक जल्दी ही चर्चा में आ जाता है। दिसम्बर महीना आधा बीत चुका है और अब तक किसी ने इस तरह के खगोलीय पिण्ड के अस्तित्व के बारे में खबर नहीं होगी।
          कुछ लोगों ने यह भी अफ़वाह उड़ाई कि २१ दिसम्बर २०१२ को धरती के चुम्बकीय ध्रुव अपनी जगह बदल लेंगे। यह लगभग असम्भव सी बात है। यह सत्य है कि पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुव (उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव) अपना स्थान बदलते रहे हैं और जहाँ पर यह आज स्थित हैं लाखों साल पहले वहाँ पर नहीं थे। यह वैज्ञानिक तथ्य भी है। लेकिन यह भी वैज्ञानिक तथ्य है कि ध्रुवों को अपनी स्थिति मे परिवर्तन करने में कई लजार साल लग जाते हैं। आधुनिक भौतिकी के किसी भी नियम के अनुसार यह महज कुछ घण्टों या महीनों में असम्भव है। इस तरह २१ दिसम्बर २०१२ को ध्रुव स्थान परिवर्तन का सिद्धान्त भी सटीक नहीं बैठा।
       कुछ लोगों ने अपनी क्रियेटिविटी का पूरा इस्तेमाल करते हुये यह भी कहा कि इस दिन सूरज से बहुत भयावह लपटें उठेंगी जो कि धरती को तबाह कर देंगीं लेकिन ऐसी किसी घटना के बारे में सौर-खगोल भौतिकी से जुड़े किसी भी वैज्ञानिक ने जानकारी नहीं दी, जबकि ये वैज्ञानिक सूरज के हर कोने में उठ रही लपटों पर नज़र रखते हैं।  कुछ लोगों ने कहा कि धरती एक ब्लैक होल के निकट है और ठीक इसी दिन पृथ्वी इस ब्लैक होल में समा जायेगी। जबकि धरती के आस पास क्या हमारे समूचे सौरमण्ड्ल के आस पास किसी ब्लैक होल के होने की सम्भावना नहीं है, अगर ऐसा कुछ होता तो हमें इस सम्बन्ध में कुछ जानकारी होती। कुछ बुद्धिमान लोगों ने कहा कि इस दिन घरती जिस धुरी पर घूमकर चक्कर लगाती है वह धुरी की दिशा बदल जायेगी, लेकिन यह बात उन्होनें किन वैज्ञानिक आधारों पर कही यह कोइ जबाब नहीं दे पाया। यहाँ तक कि इन अधिकतम परिकल्पित घटनाओं के बारे में बताने वाले लोगों के नाम पता नहीं हैं। यह बातें अफ़वाहों का रूप धारण कर चुकीं हैं जिनपर वैज्ञानिक चादर ओढ़ाने की असफ़ल कोशिश की जाती रही है। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कह दिया कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती दिसम्बर २०१२ मे नष्ट हो जायेगी, जबकि ग्लोबल वार्मिंग पर शोध करने वाले कई हजारों वैज्ञानिक इस सम्बन्ध में कहते हैं कि यह असम्भव है।


         सवाल यह है कि इस तरह की अफ़वाहें इतने बड़े पैमाने पर कैसे फैल पातीं हैं? और इनके पीछ कौन से उद्देश्य और लोग होते हैं? उत्तर साफ़ है कि ऐसी घटनायें सनसनी की श्रेणीं में आती हैं और इन्हें अफ़वाहों में बदलने में बहुत वक्त नही लगता और जनता इन घटनाओं की बहुत बहुत जल्दी आकृष्ट होती है। इस तरह की खबरें दिखाकर न्यूज चैनल, एफ़ एम रेडियो और अन्य संचार माध्यमों के ज़रिये बाज़ार अच्छी खासी कमाई कर चुका है और कर रहा है। यह अफ़वाहें मस्तिष्क में डर पैदा करती हैं और आज “डर” बेचना सबसे आसान काम बन चुका है। सपनों,प्यार, सेक्स आदि को बेचने के बाद “डर” एक बेहतरीन विक्रय बढाने वाली दवा के रुप में उभर कर सामने आया है। इस बीच लोगों को लोटरी आदि के लिये कई वेबसाइटें उकसा रहीं है, कुछ का मानना है कि लोगों को अपना सारा पैसा अन्तिम दिन की पार्टी में उड़ा देना चाहिये, इत्यादि इत्यादि। इस तरह की विक्रय तकनीकों को “वाइरल मार्केटिंग” कहा जाता है। इन अफ़वाहों से भी हमें बहुत गम्भीरता और धैर्य के साथ वैज्ञानिक ज्ञान का इस्तेमाल करते हुये निबटना चाहिये। अंततः प्रमुख अंतरिक्ष एजेंसी ने भी २०१२ में तथाकथिक किसी भी महाविनाश की घटना के होने से इन्कार करते हुये प्रेस विज्ञप्ति जारी की है कि यह दुनिया चलती रहेगी।

Friday, September 21, 2012

For whom the bell tolls


-Meher Wan
      Education is considered as the backbone of a Nation. Doyens of intellect have kept on speaking about importance of education. Several missions and Andolans are being carried out by the governments and non-government organizations for the same. Still, it is very important and considerable question, what are the reasons for the present unhappy state of education in India?
     Article of Justice Markandey Katju, “Professor, teach thyself” (Sept.3rd, 2012, Op-Ed, page-7) raised some fundamental issues about basic and higher education in Indian scenario. Many institutes, which provide professional education, are not contributing for the nation as much they can contribute. Brain drain is a big issue regarding world class institutes like IITs and IIMs. But the question arise, who is responsible for this brain drain? Or who is responsible for the unhappy state of education in villages or small cities?
     The problems of basic and higher education are fundamentally different and should be considered separately for better understanding of the Indian education system. Appointment systems for teachers should be upgraded and motivated candidates should be given opportunities. This is true that some teachers do not perform their duties properly in government schools. In democratic system, higher authorities of teachers should be aware of these irregularities and must take actions for the same. In these types of cases, attitude of villagers or local public is also very crucial as they can make a self regulatory system for monitoring of school teaching. It should not be forgotten that villagers may be irresponsible on this issue as many of them are still illiterate but the corrupt higher authorities are much dangerous for quality of education in villages. In addition to that, governments sponsored many programs like Polio eradication program, census and midday meal etc. are conducted by school teachers. How much time is given to them for teaching? I have a friend, who is a primary school teacher, seems always worry about the extra work given to him except teaching. There are firm rules for these tasks related to events like elections and other programs but what about teaching? We have monitoring systems for every task in democratic era but for teaching it is certainly not, except routine examinations of students, where local teachers only are the sole authorities. There should be external monitoring system for the same at primary level teaching too; it may be liberal depending on the conditions.
      Few decades before, school teacher was considered much respected, and this was the reason for many to join this profession. Now, it is not so for teaching exactly? Even at university level, promotions are given on the basis of research papers, not on the teaching quality of a teacher. So why should one try to upgrade teaching? People just try to publish research papers and attend seminars or conferences discussing on ‘how to upgrade education level’ like issues and keep collecting certificates to promote themselves for higher posts.
      Some months before, a reputed Hindi news magazine conducted a survey on state of higher education in India and ranked the Indian universities from different point of views. They put a well known university* of north India on the top in the field of teaching. The ground reality of this particular university is that almost half of the teaching posts are vacant at present and research students are taking classes at graduate and undergraduate level. I fear to think, if this is the condition of an institution of first rank in teaching, what would be the condition of other underprivileged institutions.
      We always compare ourselves with institutes of other countries like China. I have seen some research papers of well repute in applied sciences, which are funded by the Municipalities of small cities of China. Do we hope for the same type of awareness from different small public fronts of Indian cities or towns? If not, we should stop dreaming of being developed or prosperous country where masses will be benefitted by money of tax-payers. I often think when will we stop wasting our energy in blaming each other and will try to be responsible people of democratic India in real sense.

Monday, August 20, 2012

नैनोतकनीक की रोचक दुनियाँ
-मेहेर वान
       रविवार का दिन था। अभय अपने छोटे भाई के साथ बैठकर टेलीविज़न देख रहा था। अभय को कार्टून देखने में बहुत मज़ा आता था, साथ ही उसे शैक्षिक कार्यक्रम भी पसन्द आते। कार्टून कार्यक्रमों की कहानियाँ उसे अच्छी लगतीं, उनमें पेड़ भी बोलने लगते, चूहे नमस्कार करने लगते और हाथी कुर्सी पर बैठ रौब जमाते। यह सब उसे किसी जदुई दुनियाँ में ले जाता जो कि सिर्फ़ उसकी थी। शैक्षिक कार्यक्रमों में उसने कई बार ऐसे कार्यक्रम देखे थे जिनकी वज़ह से वह स्कूल में टीचर के उन प्रश्नों के जबाब दे पाता था जिनके उत्तर उसकी किताबों में कई बार नहीं होते थे। इस कारण से उसका क्लास में रौब जमा रहता। उस दिन टेलीविजन पर जो कार्यक्रम प्रसारित हो रहा था, उसमें यह बताया जा रहा था कि हम सब और पूरी दुनियाँ अणुओं और परमाणुओं से मिलकर बनी है। पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, लकड़ी, धातुयें, खाना, बर्तन, खेल का सामान और सबकुछ, जो भी वह अपनी आँखों से अपने आस पास देख रहा था वे सब अणुओं और परमाणुओं की सहायता से ही बनीं थीं। उसे यह जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ था कि दुनियाँ में उसे दिखने वाली हर चीज़ उसमें अणुओं और परमाणुओं से मिलकर बनी है इसके बावजूद, कि वे वस्तुयें और जीव या पेड़ उसे अलग- अलग दिखते हैं। उनका आकार अलग होता है, उनका रंग अलग होता है, कोई जीव है तो कोई निर्जीव; लेकिन वे सब अणुओं और परमाणुओं से मिलकर बनी होती हैं।
       वह सोच रहा था कि अगर हम सब एक ही तरह के मूलभूत अणुऒं और परमाणुओं से मिलकर बने हैं तो हमारी शक्ल एक दूसरे से अलग क्यों है? चिड़ियाँ चहचहाती हैं, हम बोलते हैं, पड़ोस वाले चाचा जी की गाय रंभाती है, बकरी मिमियाती है और पेड़ तो कुछ भी नहीं बोलते। हमारे दो पाँव होते हैं, गाय के चार पाँव, पेड़ की जड़ें तो ज़मीन में जाकर अनगिनत भागों में बंट जाती है, यहाँ तक कि पत्थरों के तो पाँव ही नहीं होते जबकि वे सब भी अणुओं और परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं। ऐसे न जाने कितने सवाल अभय के दिमाग में आने लगे थे। वह परेशान हो उठा था, दुनियाँ उसे बहुत जादुई लग रही थी, अपने भीतर न जाने कितने रहस्यों को छुपाये हुये।
       अभय को अणुओं के बारे में और अधिक जानने की इच्छा हो रही थी। वह सोच रहा था कि कल वह स्कूल जाकर अपने टीचर से इसके बारे में विस्तार से पूछेगा। तभी दरवाजे की घंटी बजी और मम्मी जी ने जाकर दरवाजा खोला। राजेश भैया शायद किसी काम से घर आये हुये थे। राजेश भैया भी विज्ञान की पढाई कर रहे थे। अभय तुरन्त सीढ़ियों से उतरकर नीचे वाले कमरे में पहुँच गया। कमरे में पहुँचते ही, उसने राजेश भैया को प्रणाम किया और तुरन्त उनसे एक सवाल पूछा, “भैया! इन अणुओं और परमाणुओं को आपने देखा है”? राजेश भैया यह सुनकर अचानक चौंक पड़े, और मुस्कुराते हुये बोले “अरे! अभय, तुमने अणुओं और परमाणुओं के बारे में कहाँ सुन किया?” अभय ने बताया कि वो टेलीविजन पर एक कार्यक्रम देख रहा था जिसमें बताया जा रहा था कि हम सब अणुओं और परमाणुओं से मिलकर ही बने हैं। अभय ने संशय की मुद्रा वाला चेहरा बनाकर पूछा, क्या यह सच है? भैया।
      राजेश भैया ने हाँ कहते हुये अपना सिर हिलाया। इतना सुनते हुये अभय ने तुरन्त एक नयी फरमाइश कर दी। अब अभय का भी अणुओं को देखने का मन था। उसने पूछा, भैया आपने अणुओं को कैसे देखा? उसके सवालों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। राजेश भैया को उसके पापा के पास किसी काम से आये थे। उन्होंने पापा जी से बात करने के बाद अभय से कहा कि वो आज दोपहर में अपनी प्रयोगशाला जा रहे हैं। अगर वह भी उनके साथ चलकर प्रयोगशाला देखना चाहता है तो चल सकता है। राजेश भैया यूनीवर्सिटी में डॉक्टरेट की पढ़ाई कर रहे थे। शाम के समय पापा भी खाली ही थे। अभय के पापा से राजेश भैया के साथ उनकी लैब चलने के लिये सहमति दे दी। अभय अपने पिता जी के साथ सही समय पर राजेश भैया के घर पहुँछ गये, इसके बाद वो लोग यूनीवर्सिटी में राजेश भैया की लैब गये। राजेश भैया ने बताया कि हमारे यहाँ कभी छुट्टी नहीं होती, हम छात्रों में से कोई भी जब चाहे आकर यहाँ आकर पढ़ सकता है या अपने प्रयोग कर सकता है।
      राजेश भैया सबसे पहले अभय को पढाई वाले कमरे में ले गये। वहाँ बहुत सारी कुर्सियाँ एक गोल मेज के चारों तरफ़ लगी हुयीं थीं। इससे यह लग रहा था कि यहाँ पर बैठकर वैज्ञानिक लोग आपस में बहस करते होंगे। राजेश भैया ने अभय को भी एक कुर्सी पर बैठाया। अभय बहुत छोटा था, वह अभी पहली कक्षा में ही पढ़ता था। राजेश भैया ने पूछना शुरु किया, “तो अभय! क्या कह रहे थे आप?” अणु और परमाणुओं को मैनें सीधे आँखों से देखा तो नहीं है, क्योंकि ये नहुत ही छोटे होते हैं। मगर उन्हें कई अन्य तरीकों से बहुत निश्चितता के साथ महसूस किया जा सकता है। ठीक उसी तरह से जैसे मम्मी की आवाज़ सुनकर ही तुम समझ जाते हो कि दरवाजा मम्मी जी ही खटखटा रहीं हैं। अणुओं और परमाणुओं को देखने के लिये बहुत बड़े और मंहगे यंत्रों की आवश्यक्ता होती है, जो कि हमारी प्रयोगशाला में उपलब्ध नहीं हैं। इसके बावजूद हम किसी पदार्थ में यहाँ तक निश्चितता के साथ कह सकते हैं कि अमुक स्थान पर अमुक तरह का परमाणु उपस्थित है। अभय की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। उसने पूछा कि भैया यह सब आप कैसे करते हैं? क्या मुझे आप यह दिखा सकते हैं?
      राजेश भैया ने अभय को बगल वाले कमरे में रखे यंत्रों को देखने चलने की ओर इशारा करते हुये कहा, कि अभय यह जगह बहुत ज़्यादा साफ रखनी पड़ती है। बहुत सारे आवारा परमाणु जो कि हवा में टंगे रहते हैं या जो कि हमारे शरीर से चिपक कर यहाँ तक आ जाते है। इस तरह ये गैर जरूरी परमाणु हमारे अति सूक्ष्म और अतिसंवेदनशील प्रयोगों को प्रभावित करते हैं। इन गैरजरूरी अणुओं और परमाणुओं से बचने के लिये हमें अपने आप को आधुनिक तकनीक से साफ़ करना पड़ता है और तब स्वच्छ ड्रेस पहनकर प्रयोगशाला के मुख्य कक्ष के अन्दर घुसना होता है। अभय और राजेश भैया सबसे पहले अपने कपड़ों धूल आदि के कणों से को स्वच्छ करने के लिये क्लीन रुम में गये जहाँ  उनके कपड़ों, सिर के बालों, हाथों आदि में लगे धूल के कणों को साफ किया गया। इसके बाद उन्होंने एक विशेष ड्रेस पहनी जो कि प्रयोगशाला में पहनना अनिवार्य होती है। इसके बाद वह लोग प्रयोगशाला के मुख्य कक्ष में अन्दर गये। जहाँ पर बहुत से यंत्र रखे हुये थे। अभय इतने सारे यंत्र एक साथ एक कमरे में रखे देखकर बहुत आश्चर्य चकित हो गया। उसे लगा जैसे वह किसी फ़िल्म में देखे हुये वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में आ गया है। उसे याद आया कि आयरन मैन, बैटमेन या मैट्रिक्स फिल्मों में कुछ इसी तरह की प्रयोगशालायें होतीं हैं जहाँ पर वैज्ञानिक प्रयोग करते हैं। 
       राजेश भैया ने बताया कि इस प्रयोगशाला को नैनोटेकनोलॉजी लैब के नाम से जाना जाता है। इस पर अभय के मन में तुरन्त सवाल आया कि यह नैनोटेकनोलॉजी क्या होती है?  तो हँसते हुये राजेश भैया ने जबाब दिया कि इसे विस्तार से जानने के लिये अभय, आपको अभी बड़ा होना पड़ेगा और साथ ही विज्ञान का बहुत अच्छी तरह से अध्य्यन करना पड़ेगा। नैनो तकनीक ऐसी तकनीक है जिसकी सहायता से अतिसूक्ष्म पदार्थों का अध्य्यन किया जाता है। इन पदार्थों का अध्य्यन करने के लिये बहुत अत्यधिक क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शियों का इस्तेमाल किया जाता है। राजेश भैया की लैब में कई प्रकार के सूक्ष्मदर्शी रखे हुये थे। जिनमें से एक था आणविक बल सूक्ष्मदर्शी। यह सूक्ष्मदर्शी अत्यधिक उच्च क्षमता वाला होता है और इसकी सहायता से किसी पदार्थ की सतह पर परमाणुओं की स्थिति के बारे में बहुत निश्चितता के साथ अध्य्यन किया जा सकता है। राजेश भैया ने बताया कि इसकी खोज 1986 में हुयी थी। इस सूक्ष्मदर्शी की खोज करने वाले वैज्ञानिकों को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था, जो कि विज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कारों में से एक है।
      इसकी शुरुआत बहुत वर्षों पहले हुयी थी। राजेश भैया बता रहे थे कि लगभग चार सौ साल पहले ही एक दार्शनिक “डेमोक्रिट्स” ने कहा था कि “अति दीर्घ को समझने के लिये अति सूक्ष्म को समझा जाना चाहिये।“ बीसवीं सदी में अति सूक्ष्म को समझने की दौड़  में वैज्ञानिक भी शामिल हो गये। वे जानना चाहते थे कि यदि किसी पदार्थ को बहुत सूक्ष्म टुकडों में तोड दिया जाये तो उस पदार्थ की विशेषताओं पर सूक्ष्मता का क्या असर पडता है। पदार्थ को एक मीटर के लाखवें हिस्से के बराबर तोडने के बाद शोधकर्त्ताओं ने पाया कि पदार्थ की कुछ विशेषताओं का पदार्थ के आकार का असर पडता है। तब सूक्ष्मदर्शियों की क्षमता बढने के साथ पदार्थ के और छोटे टुकडों का अध्य्यन करना संभव हो पाया। वैज्ञानिकों ने पदार्थों को एक मीटर के दस करोड्वें हिस्से के बराबर बनाकर उसका अध्य्यन करने की कोशिश की। एक मीटर के दस करोडवें हिस्से को एक “नैनो मीटर” कहा जाता है। नैनो ग्रीक भाषा का शब्द होता है जिसका अर्थ होता है ”बौना”। यदि इसे मानव के केश [बाल] की मोटाई के सापेक्ष समझने की कोशिश करें तो एक नैनोमीटर आम तौर पर मानव के बाल की मोटाई के एक लाखवें हिस्से के बराबर होता है। अगर एक नैनोमीटर की लम्बाई वाले डिब्बे में परमाणु रखने की कोशिश करें तो हाइड्रोजन के दस परमाणु इस डिब्बे में रखे जा सकेंगे क्योंकि हाइड्रोजन के एक परमाणु का व्यास ०.१ नैनोमीटर होता है। मानव के डी.एन.ए. की चौडाई २.५ नैनोमीटर होती है। पदार्थ के बहुत ही सूक्ष्म यानि कि नैनोमीटर के आकार वाले टुकडों की विशेषतायें और निर्माण की विधियों का अध्य्यन करने वाली तकनीक “नैनो-तकनीक” कही जाती है।
        यह जानकर अभय की उत्सुकता लगातार बढ़ती जा रही थी। वह जानना चाहता था कि इतनी सूक्ष्म तकनीक की सहायता से वैज्ञानिक लोग करते हैं? इतनी महीन तकनीक और इतने बड़े बड़े यंत्रों का इस्तेमाल किस लिये होता है, और ये यंत्र किस काम आते हैं। राजेश भैया ने फिर बताना शुरु किया। नैनो-तकनीक (Nano-Technology) वह तकनीक है, जिसमें किसी पदार्थ निर्माण की प्रक्रिया में परमाणुओं को इस तरह व्यवस्थित किया जाता है कि निर्मित संरचना का आकार नैनो मीटर के स्तर का हो। इस तकनीक के द्वारा पदार्थ की संरचना में अणुओं के स्तर तक फेरबदल किया जा सकता है, एक तत्व के अणुओं के स्थान पर दूसरे तत्व के अणुओं को स्थापित करके नये तरह के पदार्थ की संरचना भी की जा सकती है। ये नये पदार्थ नई रासायनिक, भौतिक और जैविक विशेषताओं वाले होते हैं। सामान्यतः, पदार्थों की नैनो आकार की अवस्था में कई विशेषतायें बडे आकार की अवस्था वाली विशेषताओं से भिन्न होती हैं। यह भिन्नता मात्र पदार्थ का आकार कम होने के कारण ही प्रकट होती है। नैनो तकनीक को  विज्ञान की किसी एक शाखा में नहीं बाँधा जा सकता है। नैनो-तकनीक का सामंजसय विज्ञान की लगभग हर एक शाखा के साथ है और नैनो तकनीक का उपयोग भी अन्य की अपेक्षा अधिक व्यापक है। नैनो तकनीक का सबसे पहले उपयोग जीव विज्ञान और इलैक्ट्रॉनिक्स में हुआ। इस तकनीक की सहायता से कैंसर का इलाज सम्भव करने के प्रयास हो रहे हैं, और इन प्रयासों में प्रारम्भिक सफलतायें भी मिलीं हैं। राजेश भैया ने बताया कि अभय इन सब बातों को विस्तार से अगली कक्षाओं में पढ़ेगा। साथ ही, तब उसे इन बातों के अर्थ और बेहतर तरीके से समझ में आयेंगे, जब वह विज्ञान के बारे में और समझ दारी हासिल कर लेगा।
       इसके बाद अभय भैया ने ऐसी बहुत सी फोटोग्राफ दिखायी जो कि इन सूक्ष्मदर्शियों की सहायता से खींची गयीं थी। जिन पदार्थों की ये तस्वीरें थीं वे बहुत छोटे थे। लगभग नैनोमीटर के आकार के, यानि कि हमारे बालों की मोटाई से लगभग की हज़ार गुना छोटे। जो कि उनके कम्प्यूटर में पहले से सुरक्षित रखे हुये थे।
  
      इतनी सूक्ष्म और सुन्दर तस्वीरें अभय और अभय के पिता जी ने पहले कभी भी नहीं देखीं थीं। अभय तो इतना खुश था कि बातें करते करते कब शाम हो गयी उसे पता ही नहीं चला। अभी भी उसे राजेश भैया से बहुत कुछ पूछना था। बहुत सारे सवाल उसके दिमाग में खलबली मचा रहे थे। लिकिन पापा जी ने कहा कि आज काफ़ी समय हो गया है अब घर चलना चाहिये। राजेश भैया को भी कुछ प्रयोग करने थे जिनके कारण वह आज रविवार के दिन भी प्रयोगशाला आये थे। अभय के पिता जी ने राजेश भैया को धन्यवाद देते हुये कहा कि अभय को आज बहुत मज़ा आया है, वह अगले रविवारों  में से जिस भी दिन राजेश भैया के साथ प्रयोगशाला आना पसन्द करेगा।  अभय ने भी पिताजी के स्वर में हाँ कहा। राजेश भैया भी बहुत खुश हुये थे। उन्होनें अभय से वादा किया कि वह आगे भी उसे इस विषय में बहुत सी रोचक बातें बतायेंगे।
  (सभी चित्र - साभार)

Wednesday, May 30, 2012

To whom it may concern


                                                                                                -Meher Wan

        It becomes a matter of great pleasure in one’s life to serve the humanity or the motherland by just working in a very small room, solving complex mathematical equations and producing valuable results. Sometimes, problems of deciphering the codes of nature become severely complex and person becomes obsessive in the quest of right answers. Being obsessive in this process is not unbelievable because he is not in science by any force but by the choice. He could be in some other services with the same dignity if he has chosen some other profession. He could be a painter or writer or even in administrative services. The first Nobel Laureate of Physics in Asia was initially an Auditor in government services, but he became researcher by his choice, struggling with his primary job and doing research in night hours. We acknowledge his work as Raman Effect now and whole world has enlightened itself with the consequential discoveries of Raman Effect. He might have enjoyed the worldly entitlements, given to an officer by the governments and remained satisfied with his job of an auditor.
       Whole world is talking about the knowledge based economy; countries are investing a huge budget in hiring and attracting the eager young minds towards their countries. The nations are struggling to support the research and development for the solutions of many small or big problems. Many countries like China and Japan could make a decent and worth following progress by attaching the wheels of research and development in the cart of national progress. Big or small companies are starting the innovative ideas producing cells in their ventures. In the crucial stage of career, where we young fellows are on the verge of choosing the right profession to live a satisfactory and happy life, the national events are of much importance because these events help us in making decisions relating to our future. Nations feel proud because of the achievements by the youngsters. But feeling proud only is not the appropriate response to the researchers or the innovative minds. We often seem to ignore the fact that researchers are also human beings with soft emotions and breakable heart.  The ongoing national scenario, related to sacked ISRO scientists is matter of deep despair for us who are preparing our self to opt the field of scientific research with grand dreams. This despair is simply not just a short term emotional reaction or some biasing without analyzing the events. This demoralization has reasons in the minds of youngsters to older scientists.
        The first question is what this society does expect from the really motivated scientists? Innovative ideas based new discoveries or management of the greedy demons, who have direct economical interests from the ventures. When science is making outstanding and fast progress, doing science is not remained a child’s play. Strong competition in professional researchers worldwide created much complexity. In this scenario, a scientist can’t perform both tasks of being good researcher and a good manager of greedy demons. That is the main reason; every scientific organization has administrative divisions who manage economical matters. National scientific advisors, administrators, economic tycoons and scientists make decisions with the help of each other. Since, national prime office also was aware of every decision and has signed on the papers of Antrix-Devas deal as reported by The Hindu, only scientists should not be the responsible for the case. Resignation of eminent aerospace scientist Roddam Narsimha from Space Commission, who was reviewing the discrepancies in the Antrix-Devas deal created much suspense in the story. Nobody is expecting that scientists should not be prosecuted for their wrongdoings, but at least the wrongdoings should be clarified in a legal way first and real responsible authorities should accept their responsibilities and duties too with the scientific researchers in any case. This case has raised serious questions about doing science in present national atmosphere before the researchers and also pointed out serious responsibilities of the common public, administrators and leaders in the proper and fruitful functioning the scientific organizations and institutes. We, research students are waiting for the appropriate actions against right and responsible authorities and hoping for justice in a democratic country.

Tuesday, May 1, 2012

हमारी शिक्षा और हम

( समय-यात्रा करते वक्त समययात्री अक्सर कुछ ना कुछ सोचना शुरू कर देता है| पता नहीं क्यों? वह खुद नहीं जानता..... लेकिन तमाम साथ वालों के यह कहने के बावजूद कि धरती पर दूसरों के लिए सोचना या तो गुनाह है या पोलिटिक्स, वह सोचता है........ )   
प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन ने कहा था, “शिक्षा का उद्देश्य किसी विषय में विशेषज्ञता हासिल किये गये ग़ुलाम पैदा करना नहीं होता, शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानवता और देश-काल के प्रति ज़िम्मेदार, नैतिक मूल्यों से लबरेज़ इंसान पैदा करना होता है”। किसी अन्य विद्वान ने भी कहा है, “शिक्षा वह बचा हुआ ज्ञान होता है, जो कि अपने स्कूलों में सीखे गये समस्त ज्ञान के भूल जाने के बाद बचता है”। स्कूल हमेशा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ज्ञान की संपदा हस्तांतरित करने के सशक्त और महत्वपूर्ण केन्द्र माने जाते हैं। यह वर्तमान में और भी महत्वपूर्ण संस्थान हो चुके हैं, ख़ास तौर पर जब वैश्वीकरण यानि ग्लोबलाइजेशन के दौर में आर्थिक और सामाजिक बदलाव इस स्थिति में आ चुके हैं कि किसी भी देश की परम्परायें, लोककलायें , भाषायें और अन्य परम्परागत विशेषतायें ख़तरे में हैं।
मानवता को बचाये रखने और अपनी परम्पराऒं से अच्छा ग्रहण करते रहने की प्रक्रिया में शैक्षिक संस्थायें और महत्वपूर्ण हो जातीं हैं।  ये सवाल पूरी दुनियाँ की शैक्षिक संस्थाओं के समक्ष है कि क्या वे संस्थायें अपनी पुरानी पीढ़ियों से मिले सकारात्मक और नैतिक ज्ञान को अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों में हस्तान्तरित कर पा रहीं हैं? चूंकि पश्चिमी देशों में नवजागरण हमसे पहले आया, और वहाँ विकास की आँधी हमारे यहाँ से पहले आयी, यह समस्या पश्चिमी देशों में हमसे पहले दृष्टिगोचर हुयी। यहाँ हमसे भी भूल हुयी कि हम इस आँधी से खुद को बचा भी नहीं पाये। मुझे लगता है, कि स्थिति तब से अत्यन्त गम्भीर हुयी है, जब से शिक्षा को एक उद्योग के रूप में देखा जाने लगा।
भारत में इसकी शुरुआत सन 1986  से हुयी, जब भारत में शिक्षा के निजीकरण के लिये संसद ने शिक्षा के दरवाजे खोल दिये। यहाँ यह बात भी नहीं भूलनी चाहिये कि शिक्षा के निजीकरण से वहाँ भी स्कूल खुले जहाँ सरकार तुरन्त स्कूल नहीं खोल सकती थी, मगर इस तरह शिक्षा से पैसे कमाने की प्रथा भी शुरु हुयी। इस प्रक्रिया में कुछ निजी शैक्षिक संस्थानों ने लगन और मेहनत से बेहतर शिक्षा प्रदान की, इसके तमाम फायदों सहित कुछ गम्भीर नुकसान भी हुये। जिनमें से प्रमुख था, सरकारी संस्थाओं में शिक्षा के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव कम होना। सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के नुमाइंदों ने ये सोचना शुरु कर दिया कि अच्छी शिक्षा निजी स्कूल देते हैं, अब हमें आराम करना चाहिये, या जिन्हें अच्छी शिक्षा चाहिये वे निजी स्कूलों में दाखिला लें। इस तरह शिक्षा को दोगुना नुकसान हुआ। जहाँ एक तरफ़ सरकारी शैक्षिक संस्थाओं ने सामाजिक ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया, वहीं दूसरी तरफ़ निजी शैक्षिक संस्थाऒं का प्रमुख उद्देश्य उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान करना था ही नहीं। उनका मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना था, चूंकि निजी शैक्षिक संस्थान शिक्षा के उद्योगीकरण के फलस्वरूप अस्तित्व में आये थे। इसके नुकसान सभी देशों में विकास प्रक्रिया के अलग अलग चरणों में दृष्टिगोचर हुये। यहाँ एक बात और याद रखनी होगी कि इस प्रक्रिया में मिशनरियों और समाज सेवी संस्थाओं कि द्वारा संचालित स्कूलों ने अपने स्तर को बचाये रखा। लेकिन ये भी सत्य है कि ये समाजसेवी संस्थायें और मिशनरियाँ पैसे कमाने के लिये स्कूल नहीं चला रहीं थीं, उनके शैक्षिक संस्थायें संचालित करने के पीछे उनके अपने उद्देश्य थे।
पिछले कुछ सालों के दौरान, मुझे कुछ महत्वपूर्ण हस्तियों से मिलने और उनसे तमाम मुद्दॊं पर बातचीत करने का मौका मिला, इस मुद्दों में शिक्षा का मुद्दा भी महत्वपूर्ण मुद्दा रहा, जिसपर कई बार बहसें लम्बी भी चलीं। आकाशवाणी, इलाहाबाद में संविदा आधारित उद्‍घोषक के रूप में काम करते हुये मुझे संचार प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के वैश्विक व्यक्तित्व एन.आर.नारायणमूर्ती से बातचीत करने का मौका मिला, जो संचार प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित कम्पनी “इन्फ़ोसिस” के संस्थापक सदस्य और पूर्व चेयरमेन भी हैं। वे कर्नाटक के एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे थे, उनका परिवार बड़ा था। ग़रीब परिवार में पले बढ़े होने के बावजूद उन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत के दम पर “इन्फ़ोसिस” जैसी कम्पनी की स्थापना की, जो कि भारत की सबसे बड़ी कम्पनियों में से एक है। शिक्षा के सम्बन्ध में मुझे उनके विचारों ने प्रभावित किया। उनका मानना था कि, “भारत में खास तौर से शिक्षा का मतलब डिग्रियों के तमगे लगाना हो गया है। उन्होंने कहा कि छात्रों का लक्ष्य स्कूलों, कॉलेजों में ज्ञान प्राप्त करना होना चाहिये न कि अच्छे अंक पाना। सिर्फ़ इतना ही पर्याप्त नहीं है, छात्रों को सोचना चाहिये कि जो भी भौतिकी, रसायन, समाजशास्‍त्र वे अपनी कक्षा में पढ़ रहे हैं, उस विषय का उपयोग समाज की समस्याओं को दूर करने में कैसे किया जा सकता है? और इस दिशा में प्रयास करने चाहिये”। शिक्षा प्राप्त करने का यह नज़रिया काफ़ी महत्वपूर्ण है। क्या सचमुच हमारे छात्र ऐसा सोचते हैं? मेरी समझ में ऐसा देश के सर्वोच्च्‍ संस्थान के छात्र भी शायद नहीं सोचते हैं। वे सिर्फ़ ऐसे कोर्स करना चाहते हैं जिससे एक अच्छी रकम वाला वेतन दिलाने वाली नौकरी मिल जाये। अगर वास्तव में युवाऒं को देश का नाम रोशन करना है तो नारायणमूर्ती जी के शब्द उनके लिये महत्वपूर्ण हैं। चेन्नई में सम्पन्न हुये एक वैज्ञानिक सम्मेलन में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक “प्रो. रिचर्ड आर. अर्न्स्ट” से बातचीत करने का मौका मिला। उनका साक्षात्कार लेते वक़्त और साक्षात्कार के बाद अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। उनका कहना था, “हम में से हर एक को यह सोचना चाहिये कि हमने अपनी पुरानी पीढ़ियों से कितना कुछ लिया, मगर हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों को क्या देकर जा रहे हैं? ग्लोबल वार्मिंग, आतंकवाद, आर्थिक अस्थिरता…..क्या हमारे पास आगामी पीढ़ियों को देने के लिये कुछ नहीं है?...ऐसे में शिक्षा, शिक्षकों और छात्रों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। हम सबको, खास तौर से समझदारों, बुद्धिजीवियों, और सक्षम लोगों को स्वयं से ऊपर उठ कर सोचना शुरु करना पड़ेगा। हमें अपने वेतन, अपने स्तर आदि से ऊपर उठकर समाज, देश और विश्व के बारे में सोचना चाहिये, तभी एक सुरक्षित भविष्य की आशा की जा सकती है। वर्तमान में युवाओं पर यह ऎतिहासिक ज़िम्मेदारी है”।
विचारों की परिधि में स्वयं को रखते हुये क्या हम इन ज़िम्मेदारियों निभाने के लिये स्वयं को तैयार कर पाये हैं? अगर देखा जाये तो कुछ हद तक ऐसा हो रहा है, शुरुआतें हो चुकी हैं। इस तरह की कुछ समस्यायें किसी एक ख़ास स्थान विशेष की समस्यायें नहीं हैं बल्कि इन समस्याओं का वैश्विक स्तर पर हल निकाले जाने की आवश्य‍क्ता है।

-मेहेर वान


Wednesday, April 25, 2012

गणित के जादूगर: श्रीनिवास रामानुजन

(आज महान भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन कि पुण्यतिथि है|  समययात्री इस महान व्यक्तित्व के बारे में जन्म से कहानियां सुनता चला आया है, और इन कहानियों से समययात्री भी हमेशा प्रभावित हुआ है| समय यात्री को एक महान गणितज्ञ को याद करते हुए गर्व महसूस हो रहा है....... )
            
            -मेहरबान राठौर

        श्रीनिवास रामानुजन विश्व के महानतम गणितज्ञों में गिने जाते हैं। अगर विश्लेषण किया जाये तो हम पायेंगे कि श्रीनिवास रामानुजन अल्बर्ट आइन्सटीन के स्तर के, अपने समय के सबसे अधिक प्रतिभावान लोगों में से एक थे। सामान्यतः महान लोग दो प्रकार के माने जा सकते हैं- एक तो ऐसे महान लोग कि अगर कोई व्यक्ति सामान्य से सौ गुना मेहनत करे तो उन लोगों जैसा महान व्यक्तित्व बन सकता है, लेकिन कुछ महान लोग जादूगरों की तरह होते हैं, उनके काम की प्रशंसा तो आप कर सकते हैं, मगर उन जैसा काम आप मेहनत के बल पर नहीं कर सकते। रामानुजन दूसरे तरह के महानतम व्यक्तित्वों में से ही एक थे। उनके लिखे कई सूत्र या प्रमेय आज भी हल नहीं किये जा सके है, या कहें कि उनकी उपपत्ति आज भी उपलब्ध नहीं है, मगर उन सूत्रों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सफ़लता के साथ हो रहा है। पूरी दुनिया के तमाम महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ रामानुजन के द्वारा लिखे गये सूत्रों पर आज भी गहन शोध कार्य कर रहे हैं।


        यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि भारत में यह वर्ष “राष्ट्रीय गणित वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है। चेन्नई में सम्पन्न हुयी राष्टीय विज्ञान काँग्रेस में प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन के जन्म के 125वें वर्ष को राष्ट्रीय गणित वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। यह सर्व विदित है कि श्रीनिवास रामानुजम का जन्म तमिलनाडु में इरोड में एक बहुत ही साधारण परिवार में 22 दिसम्बर, 1887 को हुआ था। अत्यन्त साधारण परिवार में जन्म लेने के बावजूद रामानुजम अद्वितीय प्रतिभा और तर्कशक्ति और सृजनात्मकता के धनी थे। रामानुजम बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक थे और मद्रास विश्वविद्यालय से सन 1903 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा कई पुरस्कारों के साथ पास की। हाई स्कूल के बाद ही उन्हें अत्यन्त प्रतिष्ठित “सुब्रयमण्यम छात्रवृत्ति” प्रदान की गयी जो कि उस समय गणित और अंग्रेजी के बहुत उत्कृष्ट छात्रों को दी जाती थी। उनका मन गणित की कठिन से कठिन समस्याओं को सुलझाने में खूब लगता था, और इसी कारण वे अन्य विषयों में उचित ध्यान न दे पाने की वजह से  ग्यारहवीं कक्षा में फेल हो गये। इसके बाद कुछ वर्षों तक वे ट्यूशन पढाकर और बही खाते लिखने और मिलाकर अपनी आजीविका चलाते रहे। 1906 में उन्होंने एक बार फिर मद्रास के पचियप्पा कॉलेज में ग्यारहवीं में प्रवेश लिया, और सन 1907 में उन्होंने बारहवी कक्षा की परीक्षा असंस्थागत विद्याथी के रुप में दी मगर पास नहीं हो पाये। इस तरह उनकी परंपरागत शिक्षा यहीं समाप्त हो गयी। ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं और कष्टों को लगातार झेलते हुये भी  उन्होंने गणित में अपना शोधकार्य सतत जारी रखा। रामानुजन का यह सफर अत्यन्त रोचक और प्रेरणादायी है।


          इसी बीच 14 जुलाई, 1909 को रामानुजम का विवाह कुंभकोणम के पास राजेन्द्रम गाँव के सम्भ्रान्त परिवार वाले श्री रंगास्वामी की पुत्री जानकीअम्मल से हो गयी। इसके बाद वे नौकरी की तलाश में निकल पडे।  बहुत प्रयास करने के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने अपने रिश्तेदार और पुराने मित्रों से इस सम्बन्ध में मदद माँगी। वे अपने पूर्व शिक्षक प्रोफेसर अय्यर की सिफारिश पर नैल्लोर के तत्कालीन जिलाधीश श्री आर. रामचंद्र राव से मिले जो कि उस समय इंडियम मैथमैटिकल सोसाइटी के अध्यक्ष भी थे। आर. रामचंद्र राव ने रामानुजम की नोटबुक देखकर (जिसमें उन्होंने सूत्रों और प्रमेय लिखे थे जिनकी उपपत्ति उन्होंने स्वयं की थी) काफी सोच विचार करके रामानुजम के लिये पच्चीस रुपये प्रतिमाह की व्यवस्था कर दी थी। सन 1911, की शुरुआत से लगभग एक साल तक रामानुजम को यह पारितोषिक प्राप्त होता रहा। इसी साल रामानुजम का प्रथम शोध पत्र “जनरल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी” में प्रकाशित हुआ। इस शोध पत्र में उन्होंने बरनौली संख्याओं के बारे में अध्य्यन किया था और इस शोध पत्र का शीर्षक था- “बरनौली संख्याओं की कुछ विशेषतायें” [जनरल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी, वर्ष-3 पृष्ठ219-234]। एक वर्ष तक की अवधि वाले पारितोषिक के खत्म होने के बाद 1 मार्च 1912 को उन्होंने मद्रास पोर्ट ट्र्स्ट में क्लास 3, चतुर्थ ग्रेड के क्लर्क के बतौर मात्र तीस रुपये प्रति माह के वेतन पर नौकरी शुरु कर दी। मद्रास पोर्ट ट्रस्ट की नौकरी करते हुये रामानुजम ने विशुद्ध गणित के अनेक क्षेत्रों में स्वतंत्र रुप से शोध कार्य किया, इस प्रक्रिया में वे किसी की मदद नहीं लेते थे और न ही उन्हें  उत्कृष्ट किताबें उपलब्ध थीं। शायद, गणित में शोध कार्य वे स्वांत सुखाय करते थे, उन्हें गणित के सूत्र हल करने में आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति होती थी। रामानुजन ने एक बार कहा था, “यदि कोई गणितीय समीकरण अथवा सूत्र किसी भगवत विचार से मुझे नहीं भर देता तो वह मेरे लिये निरर्थक है।” रामानुजन सामान्यतः स्लेट और चॉक के साथ समीकरणों और सूत्रों का हल करते और जो निश्कर्ष निकलकर सामने आते उन्हें वे अपनी एक नोटबुक में लिख लेते थे। ऐसा वे शायद इस लिये करते थे क्यों कि उनके पास कागज और पेन की सहायता से शोध करने के लिये पर्याप्त धन की कमी थी। हालाँकि मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में उनके पास जो काम होता था उसे वे अपनी गणितीय क्षमताओं के बल पर बहुत ही कम समय में पूरा कर देते थे और बाकी समय में कार्यालय के खराब कागजों पर सूत्र हल किया करते थे। 

      मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में रामानुजन के अधिकारियों का रवैया बहुत ही सौहार्द पूर्ण था, वे रामानुजन की गणितीय क्षमताओं के प्रशंसक थे और चाहते थे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में अपना कार्य जारी रखें। रामचन्द्र राव भी रामानुजन का पूरा ध्यान रखते थे। उनके ही कहने पर मद्रास इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर सी.एल.टी. ग्रिफिथ ने रामानुजन के कार्य को विभिन्न प्रसिद्ध और जानकार गणितज्ञों के पास भेजा, जिनमें यूनीवर्सिटी कॉलेज लन्दन के प्रसिद्ध गणितज्ञ एम. जे. एम. हिल प्रमुख थे। प्रो. हिल ने रामानुजन को अपनी समझदारी और प्रस्तुतिकरण में सुधार के सम्बन्ध में कई बार बहुत अच्छे सुझाव दिये लेकिन उन्होंने रामानुजन को विशुद्ध गणित में शोध के क्षेत्र में स्थापित होने के लिये कोई अन्य महत्वपूर्ण प्रया नहीं किये।
          इसके बाद रामानुजन ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रमुख गणितज्ञों को पत्र लिखने शुरु किये और इन पत्रों के साथ अपने शोध कार्य के कुछ नमूने भी भेजे ताकि वे उनके कार्य का प्रथम दृष्टतया मूल्याँकन कर सकें। इसी बीच रामानुजन के ही एक पूर्व शिक्षक प्रो. शेषु अय्यर ने उन्हें प्रो.जी.एच. हार्डी को पत्र लिखने की सलाह दी। 16 जनवरी 1913 को पहली बार रामानुजन ने प्रो, हार्डी को पत्र लिखा और साथ में स्वयं द्वारा खोजी गयी प्रमेयों को भी अलग से संलग्न किया। संलग्न पृष्ठों में बीजगणित, त्रिकोंणमिति, और कैलकुलस की शब्दावली में अपने निश्कर्षों को लिखा था। रामनुजन ने प्रो. हार्डी को लगभग 120 प्रमेयों जो कि निश्चिततान्त्मक-समाकलन के मान निकालने, अनंत श्रेणियों के योग निकालने, श्रेणियों को समाकलनों से परिवर्तित करने, और इनका निकटतम मान निकालने आदि से सम्बन्धित थीं। प्रथमदृष्टतया प्रो. हार्डी को लगा कि कोई लडका शायद बडी बडी बातें कर रहा है, मगर चूंकि रामानुजन ने पत्र में अपनी प्रमेयों की उपपत्तियाँ नहीं लिखीं थी, अतः प्रो. हार्डी रामानुजन की प्रमेयों में उलझते चले गये, वे कुछ प्रमेयों के हल निकालने में असफल रहे, मगर उन्होंने पाया कि वे प्रमेय कई स्थानों पर प्रयोग करने पर सही सिद्ध होती थी। प्रो. हार्डी उस समय मात्र 35 वर्ष की आयु के होने के बावजूद इंग्लैड में गणित के क्षेत्र में नयी विचारधारा के प्रवर्तक के रुप में जाने जाते थे। इस प्रकार प्रो, हार्डी ने रामानुजन की प्रतिभा का लोहा माना और यह स्वीकार किया कि उन्हें पत्र लिखने वाला कोई साधारण लडका नहीं बल्कि असीम प्रतिभा का धनी गणितज्ञ है। इसके बाद प्रो. हार्डी ने रामानुजन को इंग्लैंड बुलाने के लिये निमंत्रण भी भेजा मगर रामानुजन उस समय विदेश जाने को तैयार नहीं हुये। इसी बीच उनका प्रो. हार्डी के साथ पत्र व्यवहार चलता रहा। 


          रामानुजन व्यक्तिगत कारणों से विदेश नहीं जाना चाह रहे थे, मगर बाद में 22 जनवरी, 1914 को प्रो.हार्डी को लिखे पत्र में वे इंग्लैड जाने के लिये सहमत हो गये।रामानुजन के इंग्लैंड जाने के लिये सहमत होने के पीछे भी एक कहानी प्रचलित है, जो कि लोगों में काफी प्रसिद्ध भी है। 17 मार्च, 1914 को वह समुद्री जहाज से इंग्लैडके लिये रवाना हो गये। तब तक रामानुजन गणितज्ञ के रुप में काफी प्रसिद्ध हो गये थे, और उन्हें जहाज पर छोडने आने वालों में कई गणमान्य लोग आये थे। 14 अप्रैल को वह टेम्स नदी के किनारे इंग्लैंड पहुंच गये, और अप्रैल के महीने में  ही कैम्ब्रिज में प्रो. हार्डी से मिलकर शोधकार्य शुरु कर दिया। यहाँ उन्होंने गणित के सिद्धान्तों को और अच्छी तरह से समझने के लिये कुछ अच्छे प्रोफेसरों की कक्षाओं में जाना शुरु कर दिया। धीरे धीरे रामानुजन ने अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित करना शुरु किया। मार्च 1916 में उन्हें कैन्ब्रिज विश्वविद्यालय के द्वारा अपने 62 पृष्ठों वाले अंग्रेजी में प्रकाशित शोध लेख “हाईली कम्पोजिट नम्बर्स” के आधार पर बी.ए. (शोध के द्वारा) की उपाधि दी गयी। सन 1915 से 1918 तक उन्होंने कई शोध पत्र लिखे। 6 दिसम्बर, 1917 को रामानुजन प्रो. हार्डी के प्रयासों से लंदन मैथमेटिकल सोसाइटी में चुन लिये गये। । इसके बाद, मई 1918 में रामानुजन को “रॉयल सोसाइटी ऑफ लन्दन” का फेलो चुन लिया गया। यह किसी भारतीय के लिये बहुत ही सम्मान की बात थी। इस बीच रामानुजन का स्वास्थ्य लगातार गिरता चला गया था। इन सम्मानों के कारण रामानुजन के उत्साह में पुनः परिवर्तन आया और उन्होंने प्रो. हार्डी को कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष भेजे। इसके बाद उनका एक शोध पत्र “सम प्रोपरटीज ऑफ पी(एन), द नम्बर ऑफ पार्टीशन्स ऑफ ’एन’ प्रोसीडिंग्स ऑफ द कैम्ब्रिज फिलोसोफ़िकल सोसाइटी के सन 1919 के अंक में भी प्रकाशित हुआ। इसके तुरंत बाद, इसी वर्ष एक और शोध पत्र “प्रूफ ऑफ़ सर्टेन आइडेंटिटीज इन कंबीनेटोरियल एनालिसिस” भी इसी शोध जर्नल में प्रकाशित हुआ। इसके अलावा उनके दो महत्वपूर्ण शोध पत्र और प्रकाशित हुये जिनमें उन्होंने पार्टिशन फलनों और प्रथम एवं द्वितीय रोजर-रामानुजन के बीच सम्बन्ध स्थापित किये थे। 27 मार्च, 1919 को रामानुजन बम्बई आ गए। अपने चार साल के अल्प प्रवास में उन्होंने असाधारण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं थी। उनके विशुद्ध गणित के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रकाशित हो चुके थे और कई फ़ेलोशिप्स भी उन्हें मिल चुकी थीं। सबसे महत्वपूर्ण उपाधि रॉयल सोसाइटी ऑफ लन्दन से उन्हें अपना फ़ेलो  (एफ.आर. एस.) चुना जाना था। चार साल के अल्प प्रवास में इतनी बडी उपलब्धियाँ कोई असाधारण ही प्राप्त कर सकता है।

         उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड रहा था, मगर वे लगातार गणित में शोध कार्य करते जा रहे थे। अपने अन्तिम समय में उन्होंने मॉक थीटा फलन और फाल्स थीटा फलन पर शोध कार्य किया जो कि उनका सबसे महत्वपूर्ण और विशिष्ट कार्य माना जाता है। 12 जनवरी, 1920 को उन्होंने प्रो. हार्डी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने उन्होंने कई निष्कर्ष भेजे। इन निष्कर्षों में 4 तीसरी श्रेणी के. 10 पाँचवी श्रेणी आदि ”मॉक थीटा फलन” के कई नये सूत्र थे। उनका मॉक थीटा और क्यू-सीरीज पर किया गया कार्य विस्तृत है, कुल मिलाकर इसमें 650 सूत्र हैं। 26 अप्रैल, 1920 को रामानुजन लम्बे समय तक खराब स्वास्थ्य के कारण सुबह ही अचेत हो गये और कुछ घन्टों बाद वह चिर निद्रा में सो गये।
          रामानुजन के सुत्रों पर विदेशों में उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रतिभावान वैज्ञानिक शोध कार्य में लगे हुये है। रामानुजन को भौतिकी के अल्बर्ट आइन्स्टीन की कोटि का गणितज्ञ कहा जाना चाहिये, जिन्होंने गणित में बिना किसी औपचारिक शिक्षा के ग्रहण किये भी गणित के विकास की दिशा को न सिर्फ़ प्रभावित किया बल्कि नये आयाम दिये। रामानुजन भारतीय प्रतिभा के प्रतीक हैं और सिरमौर भी। उनके जन्म की 125वीं वर्षगाँठ को भारत “राष्ट्रीय गणित वर्ष” के रुप में मना रहा है। रामानुजन अपने शोध कार्य और गणितीय प्रतिभा के कारण अनन्त काल तक हमें प्रेरणा देते रहेंगे। 

Saturday, April 14, 2012

विदेशों में बढ़ रहा है आयुर्वेद का क्रेज़


        भारत में चिकित्सा के परंपरागत तरीकों के सम्बन्ध में लोग भले ही बहुत गम्भीर न हों, मगर भारत के बाहर कई देशों ने आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धतियों को बहुत उत्साह के साथ स्वीकार किया है। एलोपेथिक दवाइओं के लगातार बढ़ते साइड-इफ़ेक्ट्स के कारण लोगों का ध्यान चिकित्सा के परंपरागत तरीकों की ओर जाने लगा है। अब, भारत की आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के दीवाने विश्व भर के तमाम हिस्सों में देखने को मिल जाते हैं। आयुर्वेदिक दवाओं की ख़ास विशेषता यह है कि ये किन्हीं सिन्थेटिक रसायनों की मदद के बिना नेचर से सीधे प्राप्त करके बनाईं जाती हैं यह बिना खराब हुये बहुत अधिक दिनों तक इस्तेमाल के लायक रहतीं हैं और साथ ही इनके साइड इफ़्फ़ेक्ट्स भी नहीं होते। इसी तरह के कुछ कारणों से विदेशों में इंडिया की आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति धूम मचा रही है।
      
      भारत में परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के सम्बन्ध में उतनी रिसर्च नहीं हुयी जितनी कि होनी चाहिये थी। ये पद्धतियाँ समय के साथ किये गये प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर विकसित हुयी हैं, इस कारण हर दवा के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। कई बार मरीज़ों को इन पद्धतियों से आराम तो मिल जाता है लेकिन डॉक्टर्स और साइंटिस्ट आयुर्वेदिक दवाओं के प्रभाव के कारणों के बारे में नहीं समझ पाते। पिछले सौ सालों में डॉक्टरों और स्पेशलिस्टों ने आयुर्वेद में कम इन्टेरेस्ट दिखाया। इस कारण से यह परंपरागत चिकित्सा पद्धति धीरे धीरे चलन से बाहर हो गयी थी। मगर पिछले कुछ सालों में दुनियाँ भर के लोगों ने इनका इस्तेमाल करना शुरु किया है, और इन चिकित्सा पद्धतियों का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है।

        विदेशों में कई डॉक्टर आयुर्वेद में अपना इंटेरेस्ट दिखा रहे हैं। अर्जेन्टीना के डॉ. सर्गिओ सूरेज़ एक ऐसे स्पेशलिस्ट हैं, जिन्होंने अपना कैरियर आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के प्रचार-प्रसार और विकास में बनाया। डॉ. सर्गिओ का आयुर्वेद में इन्टेरेस्ट तब जागा, जब वह 1980 में इंडिया घूमने आये थे। उस समय लैटिन अमेरिका में आयुर्वेद को कोई नहीं जानता था। तीस साल के लम्बे संघर्ष में, डॉ. सर्गिओ ने आयुर्वेद को लैटिन अमेरिका में चर्चा का विषय बनाया है। वह आज भी सुबह जागने के बाद योगा और मेडीटेशन करते हैं। वे इंडियन फिलेसॉफ़ी के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। सोलह साल तक डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के बीच आयुर्वेद, योगा और मेडिटॆशन के बारे में जानकारियाँ देने के प्रयासों के साथ, डॉ. सर्गिओ अर्गेन्टीना के एक विश्वविद्यालय में आयुर्वेदिक मेडिसिन का डिपार्टमेंट शुरु कराने में कामयाब रहे। इसकी सफ़लता को देखते हुये, यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्यूनस आयर्स ने आयुर्वेद के कुछ कोर्स शुरु किये थे। इनके बाद कैथोलोक यूनीवर्सिटी और कॉर्डोबा यूनीवर्सिटी ने भी आयुर्वेद पर कई कोर्सेज़ शुरु किये, जिनकी अर्जेन्टीना के छात्रों में खासी लोकप्रियता है। डॉ. सर्गिओ ने अर्जेन्टीना में ही नहीं, बल्कि लैटिन अमेरिका के कई देशों में डॉक्टरों को आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की ट्रेनिंग दी। ब्राज़ील की हेल्थ मिनिस्ट्री ने डॉ. सर्गिओ को अपने देश में 350 डॉक्टरों के एक ग्रुप को आयुर्वेदिक चिकित्सा की ट्रेनिंग देने के लिये आमंत्रित किया था। डॉ. सर्गिओ ने ब्राज़ील के कई शहरों में जाकर ब्राज़ीलियन पुलिस को डिप्रेशन और टेन्शन से बचने के लिये योगा और मेडीटेशन की ट्रेनिंग दी। इन कार्यक्रमों से ब्राज़ील में भी आयुर्वेद चर्चित हो गया। इसके बाद, लैटिन अमेरिका के एक टीवी चैनल ने आयुर्वेदिक चिकित्सा, योगा और मेडिटेशन पर डॉ. सर्गिओ को लैक्चर देने के लिये आमंत्रित किया और इस तरह लैटिन अमेरिका में भारतीय चिकित्सा पद्धतियाँ काफ़ी चर्चित हुयीं। डॉ. सर्गिओ चाहते हैं कि अर्जेन्टीना और लैटिन अमेरिका में आयुर्वेद, योगा और मेडीटेशन को ऑफ़ीशियल और लीगल स्तर पर मान्यता मिले, और इसके लिये वह लगातार प्रयासरत हैं।

        अनुभवों और प्रयोगों के निष्कर्षों पर आधारित आयुर्वेद जैसी तमाम परंपरागत चिकित्सा पद्धतियों के सम्बन्ध में हमें बहुत पहले ही गम्भीर रिसर्च शुरु करना चाहिये थी और इनके बेहतर पहलुओं का प्रचार-प्रसार करना चाहिये था। आशा है नयी जनरेशन यह अधूरा काम पूरा करेगी।

Monday, February 13, 2012

Doomsday and Market of Phobia


-Meher Wan
  
           As we have entered in 2012, speculations about Doomsday are on full swing in common public to internet. The stories of doomsday got rebirth after the movie “2012” directed by Roland Emmerich, which was based on supposed uncontrolled devastation in 2012. This movie neither talks about the fictional planet “Nibiru” nor Polar shift of earth with appropriate clarity. Presently, there is much amount of material around us regarding doomsday-2012. You can find approximately 200 books dealing with doomsday on book-selling website ‘Amazon’. Many other websites are claiming of doing research for survival of mankind during doomsday crisis. News of this hoax is blossomed on every face of media and public.

       The saga began with the claims that a supposed planet ‘Nibiru’, which was discovered by the Sumerians of Mayan civilization, will collide with our earth in Dec, 2012. A controversial fiction writer Zecharia Sitchin writes about Sumer of the Mesopotamian civilization. He wrote in his many books (e.g. “The twelfth planet”), that he has found the strong evidences of planet ‘Nibiru’ in ancient Sumerian documents. Some so-called specialists of Mesopotamian civilization claim that the Mayan calendar will end in December 2012 and Mesopotamian people were aware of this doomsday. That was the main reason, they had calculated the days of their calendar till 2012 only. Some speculate that magnetic poles of earth will shift their position in Dec, 2012 and this will cause huge destruction. Till now, there are a number of theories regarding doomsday in 2012, which consists change in earth’s rotation axis, huge solar storms, alignment of sun with galactic center, black hole in galactic center, the dark rift in milky-way and many more. The limit was crossed when I read about end of life on earth due to global warming in 2012.
        There is nothing wrong in the fact that Mayan calendar will have so-called end in Dec, 2012. Mayan method of calculating the weeks and years was very hectic and tiring as it was a very long method. Neither had they advanced methods of arithmetic nor the computers as we have today. They could have calculated these spans of time with pen and papers. We can guess the complexity of these calculations by knowing, that in Mayan calendar one Alautun (Mayan unit of time) is equal to approximately twenty three billion days. All the calendars have a sort of periodicity in dates or in other parameters. Some experts and astronomers are saying that Mayans’ calendar system has cycles when their parameters match after a certain time, period of this cycle is 5128 years. Current cycle in Mayan calendar system was thought to have started in 3114 BC and it will end in 2012. According to this theory, the next cycle will end in 7140 AD. This is the point when hype overtakes reality.
         ‘Nibiru’ is a name in Babylonian astrology sometimes associated with the god Marduk. Nibiru appears as a minor character in the Babylonian creation poem Enuma Elish as recorded in the library of Assurbanipal, King of Assyria (668-627 BCE). Sumer flourished much earlier, from about the 23rd century to the 17th century BC. It is a supposed name of a hypothetical planet. Thousands of astronomers all over the globe with Hubble telescope in space are scanning the surroundings of earth with keen giant telescopes in visible, infrared and ultraviolet region. If this planet is to be collided with earth in Dec, 2012, this object should be in visible range of our giant telescopes from at least beginning of this year. If we consider the speculations that Nibiru is orbiting sun in every 3600 years, calculated speed of this object in its’ proposed orbit will be much less than speed of light. Thus, this should be seen by our telescopes spread all over the globe. Unfortunately, no object of this profile has been seen in any telescope till now. If any astronomer had seen it, he was supposed to publish his too much important finding related to whole life on earth.

            Magnetic Pole Shift Theory is also not possible in a very short period of time. This process may take some millions of years. Thus it will also not happen suddenly on proposed doomsday date 21-12-12. Similarly, with the laws of physics, rotation axis of earth will not be shifted suddenly in one day or even one month.  All these types of news are a hoax to create fear and anxiety in general public.
      
    The question is who are responsible for creating these types of hoax in the media, which create phobia and panic in public? Also, what are the benefits of creating these types of hoax? Movies are being released dealing with public fear about many topics from collapse of dams to doomsday. News channels are eager to sell phobia by showing breaking news and special reports with live coverage. A new type of market is evolving in the mean time and that is market of fear. After long sell of the dreams, sex etc, now it’s time to sell fear. I have seen some websites encouraging people to register for a lottery to those who will be saved during doomsday crisis. These websites are encouraging people to spend their money as nothing will remain after doomsday to enjoy or whatever people want without any question of right or wrong. Creating this sort of fake websites is a new advertising technique called “vi­ral marketing”, by analogy with computer viruses. We should understand that these types of hypes are reinforced by cheap market. The world will not end so quickly, it will go on with its direct and indirect contradictions.

Thursday, January 26, 2012

अमेरिकी इंटरनेट कानून और बौद्धिक सम्पदा सुरक्षा का प्रश्न







           -मेहेर वान
         अमेरिका में ऑनलाइन दस्तावेजों की चोरी और अवैध नकल को रोकने सम्बन्धी कानून बनाने को लेकर शुरु हुये विवादों का कोई स्पष्ट निबटारा नहीं हो सका है। इस मुद्दे पर अमेरिकी मनोरंजन और फ़िल्म निर्माण सम्बन्धित उद्योगों के लोगों में एक धूमिल विभाजक रेखा उभर कर सामने आने लगी है। इन उद्योगों से जुड़े लोग इस विवाद में चाहे जिस ऒर हों, मगर इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली आम जनता ने, अमेरिकी सरकार द्वारा प्रस्तावित ऑनलाइन दस्तावेज़ों की अवैध नकल और चोरी रोकने सम्बन्धी कानूनों का बड़े पैमाने पर विरोध किया है। अमेरिकी संसद में पास किये जाने के लिये प्रस्तावित “ऑनलाइन अवैध नकल रोधक अधिनियम (SOPA)” और “बौद्धिक सम्पदा सुरक्षा अधिनियम (PIPA)” के विरोध में विश्व भर की जनता ने विरोध जताया है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह का अधिनियम आने पर इंटरनेट पर स्वतंत्र इच्छाशक्ति और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की संकल्पना खत्म हो जायेगी।
         पिछले दिनों भारत में भी मानव संसाधन एवं विकास मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर राष्ट्रविरोधी और देश के खास वर्ग के लोगों में असंतोष और हिंसा भड़काने वाले वक्तब्यों को सार्वजनिक रूप से पोस्ट करने पर रोक लगाने के सम्बन्ध में बयान दिये गये थे। वस्तुतः ये बयान भी अमेरिकी संसद में बहस के लिये प्रस्तुत किये जाने वाले कानूनों से प्रभावित होकर दिये जाने वाले बयान कहे जा सकते हैं। इन बयानों के कारण कपिल सिब्बल को भी काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ा था। ठीक यही अमेरिका के “ऑनलाइन अवैध नकल रोधक अधिनियम” और “बौद्धिक सम्पदा सुरक्षा अधिनियम” के साथ भी हुआ है। ये अधिनियम इंटरनेट पर बौद्धिक सम्पदा की सुरक्षा और ऑनलाइन दस्तावेज़ों की अवैध नकल रोकने के लिये बनाये जाने वाले थे। वस्तुतः इन अधिनियमों का प्रमुख निशाना अमेरिका के बाहर से संचालित होने वाली वे वेबसाइट्स हैं जिन पर फ़िल्मों और संगीत से लेकर अन्य बौद्धिक सम्पदा उपलब्ध है और इन इन वेबसाइट्स से फ़िल्में, संगीत आदि को बिना कोई भुगतान किये डाउनलोड किया जा सकता है। इस तरह से फ़िल्मों और संगीत से जुड़ी कई मनोरंजन कम्पनियों को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ता है। अनेकों वेबसाइट्स पर टीवी चैनलों के कई रियालिटी शो और खेल प्रतियोगितायें अवैध तरीके से दिखाईं जाती हैं। इंटरनेट के ज़रिये इन्हीं अवैध तरीकों से पैसे कमाने पर रोक लगाने के लिये अमेरिकी सरकार, दो विधेयक संसद में बहस के लिये लाने वाली थी। लेकिन इन विधेयकों का स्वरूप कुछ इस तरह है कि इन विधेयकों के पास होने पर गूगल जैसे बड़े सर्च इंजन और फ़ेसबुक जैसी सोशल वेबसाइट्स भी सीधे तौर पर खतरे में पड़ जायेंगीं, जिन्होंने इंटरनेट को एक बड़े उद्योग के रूप में प्रतिष्ठित किया है।
          इंटरनेट पर अवैध नकल रोकने और बौद्धिक सम्पदा सुरक्षा के सम्बन्ध में पहले से ही कई नियम हैं। इन नियमों को ध्यान में रखते ही गूगल द्वारा संचालित वेबसाइट “यूट्यूब” पर पिछले वर्ष वीडियो हटाने सम्बन्धी लगभग पाँच लाख शिकायतें आयीं थी, गूगल के अनुसार जिनमें से वैध शिकायतों का निबटारा छैः घन्टे की समय सीमा के अन्दर किया गया था। इसी तरह संवैधानिक तरीके से निवेदन करने पर विभिन्न वेबसाइट्स को संचालित करने वाले सर्वरों द्वारा विवादित दस्तावेज़ वेबसाइट से हटा लिये जाते हैं। गूगल जैसे सर्च इंजन भी विवादित दस्तावेज़ों वाली वेबसाइट्स से न्यायालय के आदेश पर या संवैधानिक निवेदन पर सिर्फ़ विवादित दस्तावेज़ अदृश्य कर देते हैं। लेकिन “ऑनलाइन अवैध नकल रोधक अधिनियम” और “बौद्धिक सम्पदा सुरक्षा अधिनियम” में इस सम्बन्ध में बहुत ही कठोर दण्डों का प्रावधान है। इन अधिनियमों का सबसे कमज़ोर पक्ष यह है कि इन अधिनियमों में बहुत ही अस्पष्ट शब्दावली का प्रयोग किया गया है। जैसे कि अगर किसी वेबसाइट या सर्च इंजन पर कोई अवैध सामग्री पाई जाती है तो उसके खिलाफ़ कार्यवाई में पूरी वेबसाइट या सर्च इंजन के सर्वर को ब्लॉक यानि बन्द कर दिया जायेगा। यानि कि अगर फ़ेसबुक जैसी वेबसाइट पर कोई सामान्य उपभोक्ता आपत्तिजनक या अवैध सामग्री पोस्ट करता है तो पूरी फ़ेसबुक वेबसाइट का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। इन अधिनियमों में आपत्तिजनक सामग्री वाली वेबसाइट्स के बैंक एकाउँट और पेनपाल जैसी सुविधायें भी बन्द कर दिये जाने का प्रस्ताव है। इस तरह ये कानून इंटरनेट उद्योग की दशा और दिशा में अप्रत्याशित परिवर्तन करने वाले हैं, और अधिकतम परिवर्तन मुख्यतः नकारात्मक ही होंगे।
        पिछले दिनों तमाम वेबसाइट्स ने इन अधिनियमों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई है। प्रसिद्ध गैर-लाभग्राही वेबसाइट विकीपीडिया ने 24 घंटों तक अपनी स्क्रीन काली रखी। गूगल और याहू समेत नौ तकनीक कम्पनियों ने अमेरिकी सरकार को पत्र लिखकर याद दिलाया कि 13 महत्वपूर्ण देशों की जीडीपी में 3.4 प्रतिशत योगदान इंटरनेट का होता है, जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में इंटरनेट का योगदान अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक है। गूगल और विकीपीडिया की मुहिम को विश्व भर में लाखों इंटरनेट उपभोक्ताओं का समर्थन मिला है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के कानून,  अमेरिकी वेबसाइट्स को नुकसान पहुँचाये बिना, अमेरिका के बाहर की वेबसाइट्स को बन्द किये जाने  के लिये किये गये साफ़ सुथरे प्रयास हैं। वास्तव में, सिलिकन वेली के पास ’स्पॉटीफ़ाई’ और ’नेट्फ़्लिक्स’ जैसे भी कुछ सेवा प्रदान करने वाले प्रक्रम हैं, जो कि इस तरह के अधिनियमों के बिना इस गम्भीर समस्या पर काबू पा सकते हैं। सही मायनों में, इंटरनेट पर अवैध नकल और दस्तावेज़ों की चोरी की समस्या से निबटने के लिये इस उद्योग के रचनात्मक लोगों पर ही विश्वास किया जाना चाहिये कि वे नये उपक्रमों से ये अपराध कम कर पायेंगे। राजनीतिक नियमों और गुटबाज़ी से ये समस्यायें और जटिल होतीं चलीं जायेंगीं।